ज़ी 5 और ऑल्ट बालाजी की पेशकश : मिर्जापुर के मुन्ना भैया बनारस पहुँच लगे खेलने बिच्छू का खेल ! 

अल्टर एकता कपूर पता नहीं किस जन्म का वैर निकाल रही है मनुष्य प्रजाति से !  विकल्प (ऑल्ट ) के नाम पर एक और फूहड़ और बचकाना तमाशा ही है बिच्छू का खेल ! और फिर क्या दुश्मनी हैं नार्थ इंडिया से ? क्या खूब महिमामंडन हो रहा है ?  मतलब अपराध, धनबाद (धनबाद डायरीज ) या मिर्जापुर (सीजन १ और सीजन २ ) या अब बनारस (बिच्छू का खेल ), में है तो इतना वीभत्स है कि अपराध खुद शरमा जाय ! 

'बिच्छू का खेल' में वो सारे मसाले डाले गए हैं, जिनसे वेब सीरिज की सफलता तय होती है।अब्यूजिव लैंग्वेज(हमें तो हिंदी रूपांतरण "गाली-गलौज" शब्द से भी परहेज है ) से भरपूर डायलॉग, जर -जोरू -जमीन के कारण परत-दर-परत साजिशें-खुलासे, भड़काऊ रोमांस, रंगीन-मिज़ाज किरदार... वगैरह वगैरह सब कुछ है इसमें ! और फिर एकता हैं तो समलैंगिकता भी है। एक और भद्दा ट्रेंड चल पड़ा है कि शहर की अस्मिता का ही मखौल उड़ा दो ! इस वेब में क्राइम की चासनी में  बनारस के मंदिरों, घाटों और बाल ब्राह्मणों को भी लपेट लिया है ! रिश्तों की मर्यादाएं तो पहले से ही तार तार की जा चुकी है !     

सत्तर अस्सी के दशक की 'सी' ग्रेड क्राइम फ़िल्में भी इस वेबसीरीज से एक मायने में बेहतर थीं कि संवाद शर्मसार नहीं करते थे ! दरअसल पूरी की पूरी एक पौंध है तथाकथित क्रिएटरों की जिनके पास क्रिएटिविटी के नाम पर कुछ है ही नहीं तो वे शोर क्रिएट करते हैं !शुरू से आखिर तक बचकाना घटनाएं घट रही हैं, किरदार अजीब अजीब सी हरकतें कर रहे हैं, मर्डर हो रहे हैं और बैकग्राउंड में भुला बिसरा गीत चढ़ गयो पापी बिछुआ चल रहा है ! लेंथ की बात करें तो तक़रीबन सवा तीन घंटे ही बैठते हैं लेकिन वेबसीरीज का रूप इसलिए दिया गया है कि व्यूअर्स समझ जाएँ माल मसाला हैं जो वे देखना चाहते हैं ! तो २०-२० मिनटों के नौ एपिसोड्स में बाँट दिया एक वाहियात एरोटिक कंटेंट को जिसे इस बार व्यूअर्स शायद अपने बेटरहाफ के साथ देखने से भी परहेज करें !    

इस वेबसीरीज में बिना बात का इतना शोरशराबा है कि कान झनझना उठते हैं और क्या हीरो और क्या ही अन्य मेन किरदार - मेल या फीमेल - जब बोलते हैं अब्यूजिव ही बोलते हैं, द्विअर्थी ही बोलते हैं और उनकी अदाकारी इस बात में खोजी जा रही है कि कितना बखूबी और स्टाइल में वे ऐसे संवाद बोलते हैं ! 

सबसे पहले तो भारत के पुलिस डिपार्टमेंट को ओटीटी के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी चाहिए ! क्या पुलिसकर्मी जब भी बात करते हैं , आपस में या पूछताछ के दौरान, ऐसे ही करते हैं ? और अब तो ओटीटी वाले इनके पर्सनल लाइफ का मजाक बना दे रहे हैं ! पुलिस इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर निकुंज तिवारी (सैयद जीशान कादरी ) और उसकी पत्नी के बीच के वीडियो कॉल्स में सहकर्मियों की ताकझांक और उनके प्राइवेट ओटीटीनुमा प्रसंगों का विस्तारपूर्वक चित्रण किस पोलिसवाले को अच्छा लगेगा ? 

लिटरेचर की एक क्वालिटी होती है पल्प लिटरेचर जिसे हिंदी में लुगदी साहित्य कहा जाता है या कहें फुटपाथिया साहित्य ! इसी केटेगरी के बिच्छू का खेल के नाम के ही एक जासूसी उपन्यास पर आधारित है वेब सीरीज ! उपन्यासकार हैं अमित खान  और उन्होंने अच्छा खासा नाम कमाया है हिंदी थ्रिलर नॉवेल्स की दुनिया में ! तक़रीबन सौ से ज्यादा उनकी कृतियां हैं और अब तो अंग्रेजी और मराठी संस्करण भी आ रहे हैं।फिल्मों में भी दखल वे दे चुके हैं।  लाल इश्क के नाम से मराठी फिल्म आ रही है संजय लीला भंसाली की ! ढेरों डायमंड कॉमिक्स भी लिखे हैं उन्होंने ! 

पता नहीं नॉवेल की कहानी कैसी लगी थी , लेकिन स्क्रिप्ट निहायत ही ढीली है। बाकी जो बचा वो डायरेक्टर महोदय ने वाट लगा ही दी है।  हर आर्टिस्ट कंट्रोल के बाहर है, दे दनादन बोले जा रहा है , ओवरएक्टिंग किये जा रहा है ! किस्सा आखिर है क्या ?  शुरुआत कॉलेज फंक्‍शन में शहर के नामी वकील अनिल चौबे (सत्यजीत शर्मा) की हत्‍या से शुरू होती है, जो समारोह में मुख्‍य अतिथि बनकर पहुंचे थे। वेब सीरिज का नायक अखिल श्रीवास्तव ( मिर्जापुर फेम मुन्ना भैया वाले दिव्येंदु) भरी महफ़िल में अनिल चौबे की हत्या कर थाने में आत्मसमर्पण करने पहुंच जाता है और वहां पुलिस अधिकारी निकुंज तिवारी (गैंग ऑफ़ वासेपुर फेम डेफिनिट वाले सैयद ज़ीशान क़ादरी) को पूरी कहानी बयां करता है।अखिल यह भी बताता है कि वह अनिल चौबे की एक्स्ट्रा बोल्ड बेटी रश्मि चौबे (उभरती अंशुल चौहान) से प्‍यार करता है।

अखिल अपने पिता बाबू (रसिका दुग्गल का एक्टर एक्स बैंकर पति मुकुल चड्ढा) के साथ मिठाई की एक दुकान में काम करता है। मिठाई की दुकान अनिल चौबे के बड़े भाई मुकेश चौबे (रिसेंट पाताललोक फेम बहुमुखी एक्टर राजेश शर्मा) की होती है। अखिल का पिता बाबू रंगीनमिजाज है और मुकेश की पत्नी प्रतिमा चौबे (माधा फेम तृष्णा मुखर्जी) से उसके अंतरंग रिश्‍ते हैं। बाहुबली मुन्ना सिंह (गौतम बब्बर) की हत्‍या के आरोप में बाबू फंस जाता है और जेल भेज दिया जाता है  जहां उसकी हत्‍या हो जाती है। अखिल अपने पिता बाबू की हत्‍या के प्रतिशोध में जलता रहता है और बदला लेने के लिए निकलता है। इस दौरान उसे कई साजिशों की जानकारी होती है। वेब सीरिज का थोड़ा बहुत दिलचस्प पहलू है तो वह अखिल ख़ुद को अनिल चौबे की हत्‍या के आरोपों से कैसे बचा ले जाता है और साथ ही कैसे अपने पिता के क़ातिल तक पहुंचता है?  कुल मिलाकर 'बिच्‍छू का खेल' यही है !

एक्टिंग की बात करें तो हर कलाकार एक्टर  है लेकिन कहानी ओवर है तो एक्टिंग भी ओवर ही होगी ना ! और वो सबों ने की हैं और खूब की हैं ! लेकिन आवाजों की भीड़ में , इतने शोर शराबे में तृष्णा मुखर्जी प्रतिमा चौबे के किरदार में टाट में मखमल के पैबंद का सा आभास दे जाती हैं ! शायद इसलिए कि उसने बोला कम है या यूँ कहें संयोग से उसे फ्रीहैंड नहीं मिला डायलाग बोलने का ! 

एक तरफ उटपटांग संवाद हैं मसलन बाप है लालटेन छाप बेटा पावर हाउस और ये दुनिया गोल है यहाँ हर पाप का डबल रोल है तो दूसरी तरफ तीखे और चटपटे संवाद प्रभावित भी करते हैं मसलन जब पूरा सिस्टम आपके खिलाफ हो तो सिस्टम बनना पड़ता है ; पब्लिक कन्फर्म सीट वाले को भी उठा देती है ; घास अगर बागी हो जाय तो पूरे शहर को जंगल बना देती है ! कुछेक संजीदा द्विअर्थी संवाद भी है जैसे कहानी लंबी है टाइम देना पड़ेगा ! क्षितिज राय में क्षमता है और यदि , यक़ीनन एकता कपूर की सहमति से , संवादों के मामले में खुद को संयमित रखते तो व्यूअर्स का भला होता ! 

तरस आता है व्यूअर्स के टेस्ट पर ; चूँकि उनकी रूचि ही तो इन सरीखे कंटेट्स के क्रिएशन को बढ़ावा दे रही हैं ! एक्टर्स क्या करें ? ना करें तो वे सी ग्रेड के कलाकारों से काम चला लेंगे ; एक ढूंढों हजारों मिलते हैं ! दिव्येंदु , राजेश शर्मा , जीशान कादरी, अंशुल चौहान, तृष्णा मुखर्जी  सरीखे अभिनेता हैं तो कम से कम क्वालिटी दर्शकों को उनकी अदायगी  सुकून तो देती है।   

अंत में देखें या ना देखें तो थ्योरी वर्जित फल सरीखी ही है ! देखे बिना आप मानेंगे नहीं ! तो होने दीजिये अति ; आखिर अति होगी तभी अंत होगा ! हाँ , अखरेगा जरूर इतना खुल्ल्मखुल्ला सबकुछ लेकिन फिर लाइटर मोड पर याद आ गया आमिर खान के दंगल का डायलाग - म्हारी छोरियां छोरों से कम है के ! 

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Prakash Jain

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