आर्ट ऑफ़ लिविंग एडवांस मैडिटेशन वर्कशॉप -'मौज मनाएं , धूम मचाएं, मस्ती में काटें दिन रैन........' लेकिन भौतिक नहीं आध्यात्मिक !

निःसंदेह हर प्रतिभागी ने कुछ न कुछ बदलाव महसूस किये. प्रथम तो कृष्णमय बृज भूमि में होना और द्वितीय प्रेम ,प्यार, स्नेह, ख़ुशी और उत्साह के करीबी अर्थों को समझने वाली इस आर्ट ऑफ़ लिविंग एडवांस मेडिटेशन वर्कशॉप में भाग लेना ; हर किसी को धन्य होना ही था. हर प्रतिभागी का चेहरा साक्षी दे रहा था बदलावों की, कइयों ने बाक़ायदा निजी अनुभव शेयर भी किये.

कहावत है जब जागो तब सबेरा तो क्यों ना हम स्वयं को धन्य समझें इस बात के लिए कि आर्ट ऑफ़ लिविंग के पाठ्यक्रमों में ना केवल रुचि ली बल्कि समय समय पर निरंतर चल रहे इन वर्कशॉप में भाग लेने का मानस भी बनाया. हम सब ने शिक्षा के लिए, प्रोफेशनल करियर के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों में दाखिला लिया होगा, उन्हें पूरा भी किया होगा और अनुभव भी किया होगा कि एक वर्कशॉप, एक पाठ्यक्रम रुचिकर होता है जुड़े हुए टीचर्स, वालंटियर्स, आयोजकों और साथी प्रतिभागियों की वजह से ! 

प्रेम मंदिर , वृंदावन से

और ठीक यही खूबियां ही तो थीं पावन वृंदावन में हालिया संपन्न हुए एडवांस मेडिटेशन वर्कशॉप की. हम सब शांत, खुश और और पहले की तुलना में ऊर्जा से भरपूर अधिक आराम महसूस कर रहे हैं चूँकि एक सर्वथा अनुकूल और सौहार्दपूर्ण माहौल में वो खूबसूरत यादगार चार दिन गुजारे, मौन में रहकर भी सभी प्रक्रियाओं से गुजर गए. नितांत ही हल्कापन लिए स्वतंत्र, आनंदमय, निस्वार्थ और समर्पित साधकों का एक बहुत ही प्यारा समुदाय कहीं और मिलना असंभव सा ही है. और उत्प्रेरक हैं, सृजनकर्ता हैं, मार्गदर्शक हैं गुरुदेव श्री श्री रविशंकर तो वह तराना बरबस निकल पड़ता है, "तुझे देखकर जग वाले पर यकीन नहीं क्यूँ कर होगा, जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुंदर होगा......" इसलिए कहा बनता है हम धन्य है , हमारा अहोभाग्य है हम 'सृष्टि में एक सृष्टि' गुरुदेव की आध्यात्मिक मंडली का हिस्सा बने और यही कामना है कि सदैव बने रहें.  

मैंने शांति का, व्यापकता का, उन्मुक्त अनुभव किया ; जबकि अन्यों में से कई ने रिलैक्स्ड होने का ज़िक्र किया, कुछ ने राहत, आनंद या प्रेम की अनुभूति बताई तो एकाध को स्वयं के होने का एहसास भी हुआ. शंकाएँ अपार थीं हर किसी की ; प्रक्रियाओं को लेकर, प्रक्रियाओं की पुनरावृत्तियों को लेकर, बेसिक्स के दोहरावों को लेकर, दोहरावों और पुनरावृत्तियों से हो रही थकान को लेकर, खाने को लेकर भी. सुबह सुबह एक गर्म चाय की प्याली ना मिली तो सबसे पहला रिएक्शन मेरा ही था ; डिनर में खिचड़ी के ना भाने के एक बाला के रिएक्शन ने तो सबका ध्यान बरबस खींचा था !

लेकिन हर शंका का, हर चिंता फ़िक्र का, स्वतः ही समाधान मिलता चला गया ; कभी श्री श्री गुरुदेव के प्रवचनों से, जो समय समय पर सुनाये जा रहे थे, तो कभी गुरुवरों की गुरुतर और अति सरल वाणी से ! और तो और सह प्रतिभागियों के चार चार तो कभी उससे अधिक के समूहों को दिए गए सार्थक विषयों पर, टास्क पर, सवाल पर  पारस्परिक विचारों के आदान प्रदान भी शंकाओं को निर्मूल सिद्ध करते चले गए. यही तो परिकल्पना है एक्सटेंडेड कुटुंब की इस भौतिक युग में जहां क्लोज   फॅमिली में भी हर सदस्य यूँ कटा कटा सा है मानो अपरिचित हो. जब हम दूसरे को, जिसे कभी मिले नहीं, कभी जाना नहीं, सुनते सुनाते हैं, सारे भ्रम ढहते जाते हैं, सही मायने में बिल्कुल खाली, बिल्कुल हल्के हो जाते हैं. भान हो जाता है कि व्यर्थ का ईगो पाले बैठे हैं ! 

प्रसिद्ध दोहा है, "करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात सिल पर करत निशान !" तभी तो  प्रदत्त ज्ञान के साथ नियमित अभ्यास और गंभीर जुड़ाव एक बड़ा कारक है कि हम कितने गहरे जाते हैं. और सोने पे सुहागा वाली स्थिति ही होती है जब आर्ट ऑफ़ लिविंग में अधिकांश उन्नत पाठ्यक्रम ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक महत्व के स्थानों पर आयोजित किए जाते हैं और हम उसमें सहभागिता प्रदान करते हैं. निःसंदेह पाठ्यक्रम से प्रतिभागियों को तिहरा लाभ होता है. 

सबसे बड़ी बात रूटीन वर्क लाइफ या रूटीन आपाधापी से 4-5 दिनों का ब्रेक हमें तरोताजा कर देता हैं , हम एक अलौकिक मस्ती में सरोबार होकर बिल्कुल फ्रेश निखर आते हैं. और जब हम यात्रा करते हैं या आर्ट ऑफ़ लिविंग  के उन्नत पाठ्यक्रमों के लिए जाते हैं, तो हम समूहों में एक साथ जाते हैं, फील ऐसा होता है मानो एक परिवार जा रहा है. सभी अपने खाने-पीने की चीजों और चुटकुलों को साझा करते हैं, अंताक्षरी खेलते हैं, भजन गाते गुनगुनाते जाते हैं और अपने व्यक्तिगत सुख और दुख साझा करते हैं. इसलिए जब आप अपने दिल की बात साझा करते हैं, तो आप या हम हल्के या तनाव मुक्त हो जाते हैं. 

एक चौपाई याद आ रही है, " हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता !" सो हमारी चार पांच दिनों की जर्नी उस सतमार्ग की ही तो थी जिस बारे में जितना भी कहें, कम ही है. और चार दिनों का कोर्स कर यदि हम प्रतिदिन घंटे दो घंटे के लिए ही ऑनगोइंग लाइफ को रेग्युलेट कर लें, अपने अपने गैजेट टाइम को रेग्युलेट कर लें, यक़ीनन एक आदर्श स्थिति होगी जीवन की. यही तो जीने की कला है. और हर चार महीनों पर इसी प्रकार 4 -5 दिनों का ब्रेक लेकर आध्यात्मिक मौज और अनंत मस्ती करते हुए तरोताजा होते रहें, मौन का अनुभव करते रहें तो वो कहते हैं ना लाइफ सेट है !

भौतिक सेवा से इतर ख़ालिस सेवा के मायने समझ में आए वहां. एहसास हुआ कि सेवा का भाव इस कदर उदार और प्रसन्न चित्त कर देता है कि कुछ भी करने के लिए तत्पर होते हैं हम चूँकि समझ जो आ गया 'तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा.' और समर्पण क्या खूब समझा 'सर्किट' के समर्पण भाव से !

फिर वही बात 'वर्कशॉप कथा अनंता', कितनी शेयर करें ! सो तत्पर हो जाएँ रिपीट के लिए और जिन्होंने नहीं किया अभी तक, वे भी अपने आगामी अवकाश का सदुपयोग करते हुए शुरुआत करें आर्ट ऑफ़ लिविंग से जुड़कर !

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Prakash Jain

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