देश संविधान से चलता है, न्यायालय मनुस्मृति का हवाला दे ही क्यों ? 

और वह भी तब जब नारीवाद सर्वमान्य है. महिलाएं सिर्फ यौन प्राणी नहीं हैं और महिलाओं को केवल मां, पत्नी और बहन के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि सामान्य इंसान के रूप में देखा जाना चाहिए. मौजूदा कानून और अनेकों नजीरों के आलोक में एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता (16 साल 11 महीने की उम्र) के 7 महीने से अधिक के भ्रूण की समाप्ति की मांग वाली याचिका पर गुजरात हाईकोर्ट बाध्य है गर्भपात की अनुमति देने के लिए बशर्ते नाबालिग और भ्रूण के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए चिकित्सकीय अनुमति भी हो, पीड़िता की प्रतिकूल मानसिक स्थिति और उसकी ऑर्थो अवस्था पर भी संबंधित विशेषज्ञों की राय भी हो. 

हालांकि सामान्य नियम है यदि भ्रूण और बलात्कार पीड़िता अच्छी स्थिति में हैं तो अदालत गर्भपात की अनुमति नहीं दे सकती. लेकिन माननीय न्यायालय को निर्णय इक्कीसवीं सदी में देना है तो न्यायमूर्ति क्यों जस्टिफाई करने लगे  भूतकाल का हवाला देकर, मनुस्मृति पढ़ने के लिए कहकर ?  

मामले की सुनवाई के दौरान तर्क दिए जाते हैं केस फॉर भी, केस अगेंस्ट भी. न्यायमूर्ति भी सवाल करते हैं, कभी कोई बात भी रखते हैं निर्णय तक पहुँचने के लिए. परंतु कई बार वे अनावश्यक टिप्पणी भी कर जाते हैं जिसका निर्णय के लिए कोई औचित्य नहीं रहता. न्यायाधीशों  के निजी विचार हो सकते हैं, निजी मान्यताएं भी हो सकती हैं, उनका राजनीतिक झुकाव भी हो सकता है, लेकिन उनके फैसले इन सब से अप्रभावित होते हैं. इसलिए अवांक्षित टिप्पणियों से बचना ही चाहिए. 

इसी मामले में मनुस्मृति के हवाले से जो भी कुछ न्यायमूर्ति ने कहा, मनुस्मृति पढ़ने की राय भी दे डाली, क्या वे उस बिना पर निर्णय दे सकते हैं ? उत्तर है कदापि नहीं ! चूंकि मनुस्मृति विरोधाभासी है, विवादास्पद भी है और फिर आज के एरा में औचित्यहीन भी है, तो न्यायमूर्ति की टिप्पणी बहुतों को नागवार गुजरेगी. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि कहा भी जाने लगे ख़ास तबके द्वारा कि "हम सही तो कह रहे थे संस्थाओं का भगवाकरण हो गया है/हो रहा है."

सुनवाई के दौरान रेप पीड़िता के पिता के वकील ने इस मामले में लड़की की कम उम्र को देखते हुए गर्भपात किए जाने की बात की. इस पर जस्टिस समीर दवे ने मौखिक तौर पर कहा, "हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, अपनी मां या परदादी से पूछिए, शादी करने के लिए 14-15 साल अधिकतम उम्र थी. बच्चा 17 साल की उम्र से पहले ही जन्म ले लेता था. लड़कियां लड़कों से पहले मैच्योर हो जाती हैं. आप इसे नहीं पढ़ेंगे, लेकिन इसके लिए एक बार मनुस्मृति पढ़ें.“

जबकि भारत में पहले कुछ मामलों में 20 हफ्ते तक अबॉर्शन कराने की अनुमति थी, लेकिन 2021 में इस कानून में संशोधन के बाद ये समय सीमा बढ़ाकर 24 हफ्ते तक की गई. हालांकि, कुछ खास मामलों में 24 हफ्ते के बाद भी गर्भपात कराने की कोर्ट से अनुमति ली जा सकती है यदि डॉक्टरों के अनुसार  गर्भावस्था को जारी रखने से गर्भवती महिला के जीवन को खतरा हो या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचने की संभावना हो जिसका प्रभाव बच्चे पर भी पड़ सकता है.

आजकल तो आम हो चला है, जजों द्वारा कुछ भी कह दिया जाता है. पिछले दिनों तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति ने लड़की के मांगलिक होने या ना होने की पुष्टि के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग को लड़की की कुंडली चेक करने का आदेश तक जारी कर दिया था. मामला रेप के आरोपी की बेल का था जिसके लिए आरोपी का आधार था कि उसने शादी का वादा जरूर किया था, शारीरिक संबंध भी बने, लेकिन चूंकि लड़की मांगलिक निकली, वह शादी नहीं कर सकता. भला हो शीर्ष न्यायालय का, इस आदेश पर हैरानी जताते हुए स्वतः संज्ञान लिया और आदेश को सिरे से खारिज कर दिया.           

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Prakash Jain

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