स्टेट बैंक का तो पता नहीं, अपुन को समझ नहीं आया ! "किन किन ने ख़रीदे और किन किन पार्टियों ने भुनाया" भर से तो कयासों का, बातों का ऐसा नामाकूल दौर चलेगा कि जिंदों की अर्थियों पे बताशों का दौर होगा !
इलेक्टोरल बांड्स असंवैधानिक है, कहते हुए सुप्रीम कोर्ट नए बॉन्ड की खरीद पर रोक लगा दी थी ; साथ ही कहने भर के लिए यह भी कह दिया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन था. चूँकि वोटर्स को पार्टियों की फंडिंग के बारे में जानने का हक है, सुप्रीम फरमान जारी हुआ कि बॉन्ड खरीदने वालों की लिस्ट सार्वजनिक की जाए.
एसबीआई ने सुप्रीम ऑर्डर ज्यादा ही पढ़ लिया और ख़ुद के लिए बेवजह ही धर्म संकट की स्थिति पैदा कर ली. एसबीआई ने सरकार के निर्देशानुसार बांड्स बेचे थे जिन्हें पॉलिटिकल पार्टियों ने भुनाया भी था. किसने किस पार्टी को कितने मूल्यों के बांड्स दिए, या तो देनेवाला जानता था या फिर एसबीआई इस बात को डिकोड कर सकता है. और बैंक ने बड़े ही भोलेपन से समझ लिया कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश इसी डिकोडेड लिस्ट के सार्वजनिक किए जाने के लिए है.
और इसी भोलेपन के लिए न्यायमूर्ति ने फटकार लगा दी चूँकि अदालत ने सिर्फ खरीदारों की और जमाकर्ताओं की लिस्ट मांगी थी बगैर किसी लिंकेज के और जिसकी रियल टाइम ग्रॉस अवेलेबिलिटी है बैंक की मुंबई शाखा में.
दरअसल शीर्ष न्यायालय का फैसला एक बार फिर बैलेंसिंग एक्ट ही सिद्ध हुआ है. एसबीआई को डोनर और पोलिटिकल पार्टी का मैचिंग डाटा नहीं देना पड़ा और इलेक्शन कमीशन ने भी बगैर बांड्स नंबर के ही दोनों लिस्ट अपलोड की. इस प्रकार निर्णय में बातें बातें बड़ी बड़ी कर दी लेकिन परिणति ऐसी हुई कि "क्विड प्रो क्वो" गोपनीय ही रख दिया. एक कहावत है अंग्रेजी में "THE SPIRIT IS WILLING BUT THE FLESH IS WEAK " और यही चरितार्थ होती है शीर्ष अदालत पर ! कहने का मतलब न्याय जनधारणा के लिए होने लगे हैं, न्याय के लिए नहीं !
देखा जाए तो शीर्ष न्यायालय ने भी लक्ष्मण रेखा इस मायने में लाँघ ली कि फैसले को विस्तार दे दिया वरना इलेक्टोरल बांड्स को असंवैधानिक बताते हुए तत्काल रोक लगाने तक ही निर्णय को सीमित रखना था. कई क़ानून थे, जिनके अनुसार क्रियान्वन होता था, जो कालांतर में रद्द हुए लेकिन उनके अनुरूप हुए पूर्व क्रियान्वन को रद्द नहीं किया गया क्योंकि तब वे वैध क़ानून थे.
लौट आएं राजनीति पर जो अब खूब होगी; तमाम कोशिशें होगी शासक पार्टी को घेरने की लेकिन कयासों की राजनीति का एक बार फिर वही हश्र होगा, चारों खाने चित ही होगी और शासक पार्टी बखूबी माइलेज लेते हुए इक्कीस साबित होगी. वो डायलॉग है ना 'जिसके घर पत्थर के होते हैं , वो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते'. दूध का धोया तो कोई नहीं है, हर किसी ने बांड्स लिए हैं, 'कुछ के लिए कुछ' के आरोप प्रत्यारोप सभी एक दूसरे पर लगाएंगे जबकि हमाम में सभी नंगे हैं. उदाहरणार्थ, उपलब्ध डाटा से स्पष्ट है सबसे ज्यादा ६०६० करोड़ के बांड्स बीजेपी ने भुनाये, दूसरे नंबर पर तृणमूल ने १६१० करोड़ के और तीसरे नंबर पर १४२२ करोड़ के कांग्रेस ने, बीआरएस ने १२१५ करोड़, बीजेडी ने ७७५ करोड़,, डीएमके ने ६३९ करोड़, वाईएसआर ने ३३७ करोड़ , तेलगु देशम ने २१९ करोड़, शिवसेना ने ए ९ करोड़, आरजेडी ने ७३ करोड़ के बांड्स भुनाये. और इस डेटा की व्याख्या यानी इंटरप्रिटेशन सब अपने अपने माफिक करेंगे. उचित व्याख्या क्या नहीं होगी कि पैन इंडिया पार्टी होकर बीजेपी को ६००० करोड़ मिले तो सिर्फ एक राज्य तक सीमित तृणमूल को मिले १६१० करोड़ 'बहुत के लिए बहुत' हुआ ? और एक व्याख्या एनडीए बनाम इंडी अलायन्स प्लस अन्य विपक्षी पार्टी के एंगल से भी करें तो ६५०० करोड़ बनाम ७००० करोड़ निकल आता है. हाँ, पीड़ा कांग्रेस की जरूर वाजिब है कि क्षेत्रीय पार्टियों को भी उनसे ज्यादा मिल गया क्योंकि उनके पास बदले में देने की स्थिति जो नहीं थी !
एक और दिलचस्प व्याख्या देखिये - बीजेपी के ३०३ सांसद हैं, उन्हें ६००० करोड़ मिले और विपक्ष के सिर्फ २४२ सांसद ही हैं लेकिन १४००० करोड़ मिल गए !
कुल मिलाकर निष्कर्ष निकाला तो कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका के ऐसे एपिसोड्स होते रहते हैं, आम जनता समझती नहीं है और बुद्धिजीवी समझता भी है तो इग्नोर करता है.और उनके लिए, जिनकी दिलचस्पी हैं, मसलन नेता,पत्रकार, एक्टिविस्ट, तो यही कह सकते हैं कि समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरु करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम ! सो वे अब खेलने लगे हैं इलेक्टोरल बांड्स के डाटा से !
चूंकि “खेला” है, स्पोर्ट्स स्पिरिट नदारद है. जमकर फ़ाउल खेले जाएँगे. कहने का मतलब फ़ाउल लैंग्वेज बोली जाएगी. चूंकि जिन्हें कम मिला, ख़ासकर कांग्रेसी, वे ज़्यादा भड़ास निकालेंगे जैसे सबसे बड़े नेता ने उवाचा भी -
“एक तरफ कॉन्ट्रैक्ट दिया, दूसरी तरफ से कट लिया ; एक तरफ से रेड की, दूसरी तरफ चंदा लिया.”
चंदों का इतिहास तो शाश्वत है, पहले स्वेच्छा से और निःस्वार्थ हुआ करते थे ! अब क्विड प्रो क्वो यानी “कुछ के लिए कुछ” तक़रीबन हर डोनेशन में निहित है ; धर्मार्थ भी अछूते नहीं है ! तो फिर पोलिटिकल चंदे कैसे दूध के धोये हो सकते हैं ?
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