हम नहीं कहते इलाहाबाद उच्च न्यायालय कहती है कि लिव इन रिलेशनशिप टाइमपास है ! 

जबकि शीर्ष न्यायालय हमेशा लिव इन रिलेशनशिप का सम्मान करती रही है, सामाजिक अस्वीकार्यता को भरसक कमतर भी किया है अपने निर्णयों के माध्यम से. 

हालाँकि इलाहाबाद हाई कोर्ट के दो सम्मानित जजों की पीठ ने स्वीकारा कि सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में लिव इन रिलेशनशिप को वैध ठहराया है. तो फिर पीठासीन जजों ने लिव इन में रह रहे बालिग़ अंतरधार्मिक कपल की क्यों नहीं सुनी ? 

शीर्ष अदालत ने कहा था कि कुछ लोगों की नज़र में अनैतिक माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में रहना कोई अपराध नहीं है. और मान भी लें अपराधी है तो उसकी सुरक्षा कोई मसला नहीं है क्या ? संदर्भ अलग हैं लेकिन इसी देश ने बिना माँगे कसाब की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए करोड़ों खर्च कर दिये थे ! 

तो कह सकते हैं कि कपल की सुरक्षा याचिका पीठ के दोनों जजों के नज़रिए की भेंट चढ़ गई. आख़िरकार फ़ैसला भी तो एक नज़रिया ही हैं, दीगर न्यायमूर्ति होतीं तो उनका नज़रिया अलहदा होता और सुरक्षा उपलब्ध करा दी जाती.

 चूंकि कमतर बालिग़ जोड़ा है, ऊपर से अंतरधार्मिक है जिसमें लड़की हिंदू है और लड़का मुसलमान, सिर्फ़ दो महीने से ही लिव इन में हैं आदि आदि ; इसलिए रिश्ता अस्थायी है, टाइमपास के लिए विपरीत लिंग के आकर्षण के वशीभूत बेईमानी का है - ऐसा पीठ का नज़रिया है. पीठ भूल गई शायद कि ऐसा है भी तो एडल्ट्री क़ानून ही कब का रद्द हो चुका ! 

एकबारगी मान भी लिया न्यायमूर्तियों का मंतव्य ठीक है, लड़की के घरवालों द्वारा लड़के के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा ३६६ के तहत दायर मामले के आलोक में जोड़े की मामले को ख़ारिज करने के साथ साथ पुलिस सुरक्षा की माँग की याचिका कैसे अनसुनी की जा सकती है जबकि दोनों साथ हैं और लड़की कह रही है कि वह अपनी मर्ज़ी से लड़के के साथ रह रही है ? दोनों की संयुक्त याचिका ही किसी भी अगवा किए जाने के आरोप कि ख़ारिज करती है. कहने का मतलब आपका मंतव्य एक वस्तुस्थिति को, एक अंदेशे को धत्ता कैसे बता सकता है ? 

माना दोनों का रिश्ता टाइमपास है, कल इश्क़ का भूत उतर जाएगा लेकिन इस बिना पर आज उन्हें सुरक्षा देने से इनकार कैसे किया जा सकता है ? कपल को राहत देने के लिए शीर्ष अदालत से लेकर अन्यान्य उच्च न्यायालयों की ढेरों नजीरें भी हैं. दरअसल आजकल जज इंसाफ़ नहीं करते, फ़ैसला देते हैं और हर फ़ैसला इंसाफ़ नहीं करता क्योंकि जज अपने निजी नज़रिए से ऊपर उठकर फ़ैसला नहीं दे पाते. ऑन ए लाइटर नोट सभी न्यायमूर्तियों में परमेश्वर वास नहीं करते आजकल ! 

बिलकुल ताज़ादम और एक कदम आगे सरीखा फ़ैसला है हरियाणा उच्च न्यायालय का कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाला जोड़ा अपने रिश्तेदारों की धमकियों से सुरक्षा का हकदार है, भले ही रिश्ते में भागीदार विवाह योग्य उम्र के न हों और भले ही वे कुछ दिनों से ही लिव इन में रह रहे हों.  यहाँ न्यायाधीश ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार जोड़े पर लागू होता है, भले ही वे विवाहित हों या विवाह योग्य उम्र के हों.  

पता नहीं मानव जीवन का अधिकार क्यों भूल गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वय ? वे सुनवाई के दौरान शीर्ष न्यायालय के फ़ैसले को याद तो करते हैं लेकिन अनुसरण नहीं करते. और ऐसा ना करने के लिए केस फॉर आर्ग्युमेंट्स भी स्वयं ही रख देते हैं, जबकि उन्हें तो केस फॉर और केस अगेंस्ट आर्ग्यूमेंट्स सुनकर न्यायोचित फ़ैसला देना है.

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Prakash Jain

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