उइगर मुस्लिमों की परवाह मुस्लिम देशों को ही नहीं है तो भारत सरकार को क्यों कोसें ? 

कहने भर को ही मानवाधिकारों के लिए सबसे बड़ी संस्था यूएन के फ्लैग तले है ! दरअसल फॉर्मेट ही दोषपूर्ण है ! तभी एक्शन तो छोड़िये, सर्वविदित और निर्विवाद रूप से चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों के मानवाधिकार उल्लंघन पर चर्चा भी नहीं हो सकती ! चीन के खिलाफ ब्रिटेन , तुर्की, अमेरिका और कुछ अन्य वेस्टर्न कन्ट्रीज द्वारा लाया गया प्रस्ताव 17-19 के मामूली अंतर से गिर गया। हश्र कुछ यूँ हुआ कि यूएन ह्यूमन राइट्स कौंसिल के कुल 47 सदस्यों में से 17 ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया जबकि 19 सदस्यों ने विरोध में और 11 तटस्थ रह गए ! 

कहने को यूएन की अवधारणा वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित है लेकिन हकीकत नहीं बदली है ; 'यह मेरा अपना है और यह नहीं है ' की सोच से ऊपर कोई नहीं उठ पाया है नतीजन मानवाधिकार से संबंधित मसला  भी राजनीति और कूटनीति का शिकार हो ही जाता है। इस प्रस्ताव पर भी मतदान से पहले जेनेवा में कई दिनों तक जमकर राजनीति और कूटनीति हुई। पश्चिमी देशों ने कौंसिल प्रमुख मिशेल बैचलेट की हालिया रिपोर्ट, जिसमें कहा गया था कि शिनजियांग में 'मानवता के विरुद्ध' अपराध हुए हैं, को आधार बनाते हुए अफ्रीकी और अन्य देशों को अपनी तरफ लाने की भरसक कोशिश की , लेकिन बलिहारी हो चीन की वह अपने कई साथियों के अलावा कुछ ऐसे देशों को भी अपने पक्ष में लाने में कामयाब रहा, जिसकी प्रस्तावक देशों को उम्मीद भी नहीं थी। कई अफ्रीकी देश, मध्यपूर्व के देश जैसे कतर और यूएई आदि चीन के साथ रहे। पाक और नेपाल ने भी चीन का साथ दिया। सोमालिया एकमात्र ऐसा अफ्रीकी देश था जिसने चीन का साथ नहीं दिया। अर्जेंटीना, ब्राजील, भारत, मलेशिया, मेक्सिको और यूक्रेन ने मतदान में हिस्सा ना लेकर चीन को ही फायदा पहुंचा दिया। 

वास्तव में दुनिया ने चीन को अन्य देशों के बराबर मानकों पर परखने का एक बड़ा मौका खो दिया। यूएन सिक्योरिटी काउंसिल के स्थायी सदस्य चीन के खिलाफ कभी भी ह्यूमन राइट्स कौंसिल में कोई भी प्रस्ताव पास नहीं हो पाया है। विडंबना ही है कि मौजूदा प्रस्ताव में तो सिर्फ चर्चा का प्रस्ताव था, चीन पर किसी सर्विलांस थोपने का तो क्या किसी प्रकार का निंदा का भी प्रस्ताव नहीं था और ना ही जांच के लिए किसी टीम के गठन का या किसी विशेष दूत के नियुक्त किये जाने का भी जिक्र था ! जबकि काउंसिल चाहे तो प्रस्ताव पास कर ऐसा भी कर सकती थी ! और जब मतदान के नतीजों का सदस्यों ने तालियां बजाकर स्वागत किया, दुनिया का सर शर्म से ना भी झुका तो झुका ही मान लीजिये ! 

भारत में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ महीनों तक विरोध प्रदर्शन होते हैं या पैगंबर मोहम्मद के कार्टून के विरोध में एक अखबार के पेरिस स्थित दफ्तर पर हमला होता है या म्यांमार से रोहिंग्याओं के बेदखल होने पर हाहाकार मचता है और दुनिया के तकरीबन हर कोने में इस्लाम पर ज़रा सी आंच आने पर बवाल होता है। लेकिन चीन के खिलाफ दुनिया की करीब एक चौथाई आबादी यानी मुस्लिम देशों का रवैया हैरान करता है। जहां तक भारत के रवैये की बात है तो मौजूदा सरकार ने अपनी नीयत के लिए स्टैण्डर्ड जवाब की आड़ ले ली कि 'भारत कभी भी 'Country-Specific Resolutions' में विश्वास नहीं जताता है। कहा गया है कि भारत हमेशा से ही मानवाधिकारों का सम्मान करता है इस स्टैंड के साथ कि बातचीत के जरिए समाधान निकाला जाए। भारत की 'विशेष कूटनीति' क्या यही है और है तो क्या सही है ? सवाल उठ सकते हैं ! लेकिन सवाल भारत से ज्यादा मुस्लिम देशों के स्टैंड पर बनता है ! भारत के लिए कहा जा सकता है और कहा भी जा रहा है कि एक तरफ चीन के लिए स्पष्ट संदेश है कि वह भारत के आंतरिक मामलों पर संयुक्त राष्ट्र में किसी भी तरह के खुराफात से दूर रहे; दूसरी तरफ पश्चिमी देशों को भी साफ-साफ संदेश दे दिया है कि मानवाधिकारों के नाम पर विकासशील देशों को घेरने की कथित स्वयंभू  पुरोधाओं की मनमानी नहीं चलेगी। 

चीन में 18 लाख उइगर मुसलमान कैद में हैं, 10 लाख मुसलमानों को बंदी कैंपों में में रखा गया है और इनसे बंधुआ मजदूरों की तरह काम लिया जाता है। पिछले तीन सालों में 10 से 15 हज़ार मस्जिदें झिनझियांग प्रांत में नष्ट की जा चुकी हैं। भारत और चार मुस्लिम देशों के साथ सीमा साझा करने वाले झिनझियांग में चीन की इस क्रूरता पर मुस्लिम देश क्यों चुप्पी साध लेते हैं ? खुद को इस्लामिक देशों का अगुआ बताने वाला सऊदी अरब आज तक इस मुद्दे पर चुप ही रहा है। तुर्की , हालांकि प्रस्ताव का समर्थन किया है, उइगरों को चीन भेज देता है, अगर वो उसकी ज़मीन पर आ जाएं। पाकिस्तान उइगर मुसलमानों के मुद्दे पर अनजान बना रहता है। पाक का साथ देने और कश्मीर मुद्दे पर भारत का विरोध करने वाला मलेशिया कभी उइगरों के लिए चीन के खिलाफ नहीं बोलता। ईरान ने तो यहां तक कह दिया था कि उइगरों के दमन से चीन इस्लाम की सेवा ही कर रहा है। ऐसा क्या रहस्य है या वजह है जो चीन की क्रूरता पर कुछ बोलने नहीं देती ? दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देश अन्य संपन्न देशों की आर्थिक मदद के मोहताज हैं या फिर अहम कारोबारी रिश्ते रखते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट यानी 'एक बेल्ट एक रोड' चीन की महत्वाकांक्षा है और इसमें 30 मुस्लिम देश शामिल हैं। इसके अलावा, चीन ने पाकिस्तान में 4.47 लाख करोड़, सऊदी अरब में 5.20 लाख करोड़, ईरान में 29 लाख करोड़ रुपये के बड़े निवेश किए हैं, जो इन देशों की बोलती बंद रखने के लिए काफी हैं।

सबसे ज्यादा आश्चर्य तो यूक्रेन के रवैये से हुआ ! अपने ख़ैरख़्वाह यूरोपीय देशों और अमेरिका के प्रस्ताव का ही मखौल उड़ा दिया ! हालांकि दूसरे दिन ही इसने सबों द्वारा बताई जाने वाली इस गलती को मानते हुए अपना मंतव्य बदल दिया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। क्यों ना मानें यूक्रेन की भी वही टीस है जो भारत की है और यूएन में मौजूद प्रतिनिधि मंडल ने तटस्थ रहकर यही जता भी दिया !

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Prakash Jain

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