फोरबिडेन फ्रूट इफ़ेक्ट ही है कि जब भी 'मंटो इस्मत हाजिर है' का मंचन होता है, हिट होता है ! 

तक़रीबन दो दशकों से मोटले थियेटर ग्रुप की सदाबहार नामचीन प्रस्तुति रही है "मंटो इस्मत हाजिर है !" नसीरुद्दीन शाह के निर्देशित मंचन में जब रत्ना पाठक शाह की भूमिका सूत्रधार की हो और नामचीन कलाकार प्रसिद्ध पृथ्वी थियेटर के स्टेज पर परफॉर्म कर रहे हो, मंटो और इस्मत के अफ़साने जीवंत तो होंगे ही ! 

मोटले ग्रुप है तो यथा नाम तथा गुणे बनाये रखते हुए पंचमेल कलाकारों की विविधता कायम रखी गई हैं प्रस्तुति में। सो आज अठारह साल बाद भी मंटो और चुगताई सरीखे अच्छे लेखकों की कृतियों पर आधारित हाउसफुल शो हो रहे हैं ; हालांकि पृथ्वी थियेटर के मंच की भी अपनी यूएसपी है नाटक प्रेमियों को खींचने की ! “मोटले” नाम की सार्थकता के अनुरूप ही थोड़ा प्रहसन है, चुटीलापन है, विविध साज सज्जा है और लिबरल होने तथा दिखने का मकसद भी है !  यदि कहें कि मोटले टीम अपने हर मंचन के साथ 'उन' कृतियों को पुनर्जीवित करती है,अतिशयोक्ति नहीं होगी।

नाटक में मंटो की दो लघु कथाएँ और चुगताई की एक लघु कहानी और निबंध है और सब इस कदर विवादास्पद और बदनाम रहे थे कि दोनों को लाहौर की अदालत में कई कई बार हाजिर होना पड़ा था वरना तो १९४० के दशक में वे जेल पहुँच ही चुके थे। नसीरुद्दीन शाह ने शायद निंदकों के पाखंड का पर्दाफाश करने के लिए ही इन अफसानों को चुना था। लघु कथाओं की प्रस्तुति मोनोलॉग के रूप में हैं जबकि निबंध एक अच्छा ख़ासा प्रहसन बन पड़ा है जिसमें पूरी कास्ट ही शामिल हैं। पहली कहानी है "बू" वो जो कहते हैं ना तेरे से बू आ रही है। भला मंटो के अलावा कौन "बू" को सेंसुअलाइज़ कर सकता था ! और फिर कहानी की शानदार एकालाप प्रस्तुति भी उतनी ही इरोटिक ! कहानी क्या है ? एक घाटन (भंगन) महिला के साथ एक पुरुष का वन नाईट स्टैंड ! भंगन के शरीर की गंध उस पर वो 'बू' के मानिंद है जो ना तो इत्र के माफ़िक सुगंध देती है और ना ही वह गंध बासी है ! उस रात की उस बू का नशा इस कदर हावी रहा कि सालों बाद अपनी गोरी चिट्टी ब्याहता में लाख कोशिशों के बाद भी खोज नहीं पाया ! तब अश्लील बताया गया था मंटो के इस स्त्री पुरुष के यौन संबंधों के बेबाक चित्रण को ; वैसे आज भी फहश ही है चूंकि तभी तो फैसिनेटिंग है ! हाँ , तब और आज में कॉमन है एक चीज और वो है समाज की हिपोक्रेसी !   

दूसरी कहानी है टिटवाल का कुत्ता जिसका मोनोलॉग वाकई एक हुनरमंद ही प्रस्तुत कर सकता है। तब मंटो ने कहानी में टिटवाल के कुत्ते के माध्यम से बंटवारे से उपजी दोनों देशों के राजनीतिज्ञों और लोगों की मानसिकता पर कटाक्ष किया था। सार अंत की एक लाइन में ही निहित था, ' वही मौत मरा जो कुत्ते की होती है !'  दुर्भाग्य ही है कि आज भी कुछ बदला नहीं है, वही स्वार्थपरक राजनीति है और लोगों की मानसिकता तो बद से बदतर हो गई है ! सूत्रधार के रूप में रत्ना शाह भी यही बताने से नहीं चूकती फिर भले ही एक बार फिर वह कथित ‘उस ‘ सेंस में  ‘लिबरल ‘ क्यों ना करार दे दी जाए ! 

नाटक की तीसरी कहानी इस्मत की 'लिहाफ' प्रस्तुत करती है वेटरेन अदाकारा हीबा शाह !  विवादों के साथ साथ अश्लीलता की बात करें तो 'लिहाफ' टॉप करती है। लेस्बियन प्यार की पहली कहानी थी ये शायद ! लेकिन क्या इसकी एक वजह पति का जबरदस्त समलैंगिक होना हो सकता है ? या फिर ओरिएंटेशन की बात है ! हाँ , तब १९४० के दशक में और अब आज के दौर में बहुत कुछ बदल गया है। तब इस्मत की कहानी के 'लिहाफ' के हाथी, मेंढक, खुजली और न जाने क्या क्या पचने ही नहीं थे किसी को भी और आज तो हर दूसरे तीसरे कंटेंट में होमोसेक्सुअल या लेस्बियन का किरदार नजर आ जाता है। फिर भी हिपोक्रेसी जस की तस है !

और फिर अंत में 'उन ब्याहताओं के नाम' है दोनों लेखकों पर लाहौर हाई कोर्ट में चले फहाशी के मामले की कार्यवाही का विवरण एक ख़ास अंदाज में ! कुल मिलाकर चौथा अध्याय बेमिसाल प्रहसन ही है ! नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन बेहतरीन है और सूत्रधार के किरदार में रत्ना कनेक्ट करती है, थोड़ी बहुत हलकी फुल्की बातों से लुभाती भी हैं, आज के सामाजिक और राजनैतिक माहौल पर टिप्पणी भी बस कर ही जाती है। भिन्न भिन्न मोनोलॉग के लिए शायद हीबा शाह, साहिल बैद , ध्रुव , इमाद शाह और सायन से बेहतर अन्य हो ही नहीं सकते थे ! किंचित भी आभास नहीं होता कि वे इधर उधर यूँ ही घूम रहे हैं। जब तब उनका गायन, उनकी भाव भंगिमा कहानियों को जीवंत कर जाती है और दर्शक बस मंत्रमुग्ध सा सुनने में लीन हो जाता है। भाषा शुरू में थोड़ी दुरूह लगती है लेकिन फिर थोड़ा समय निकला नहीं कि राब्ता बैठ जाता है और फिर कुछ कठिन शब्दों को कलाकार भी अंग्रेजी या हिंदी में समझाते चलते हैं।

'तब' कहाँ अलग था 'अब'  से ? तब मंटो और इस्मत अश्लील नहीं साहसी लेखक थे ! अब भी तो साहसियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से कभी देशद्रोही तो कभी विधर्मी या कभी कट्टरता के हवाले से अश्लील बता दिया जाता है !    

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Prakash Jain

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