Netflix वेब सीरीज़ रिव्यू : देहली क्राइम सीजन 2 

एक परफेक्ट रियल क्राइम स्टोरी मेगा थीम्स लिए होती हैं और कह सकते हैं ऐसी ही दिल्ली क्राइम सीजन २ है ! दो सर्वविदित तथ्य है ; एक  सामाजिक और आर्थिक विषमता सर्वत्र है, दिल्ली भी अछूती नहीं है और दूसरे 'बड़ा पुलिसिया बनता है' नवाज कर पुलिस का मजाक उड़ाने वालों की कमी नहीं हैं। इन्हीं दो बातों का जवाब तलाशती 'देहली क्राइम' की यात्रा का सार इन चंद शब्दों में छिपा हुआ है - 'दो दिल्ली, एक पुलिस' !     

अपराध क्यों होते हैं या कहें अपराध क्यों किया जाते हैं ? अक्सर सामाजिक और आर्थिक विषमता ही अपराध की वजह बनती है या कहें कि लोगों को क्राइम करने के लिए उन्मुख करती है ! हाँ, कभी कभार दीगर वजहें भी होती हैं लेकिन उन वजहों की जड़ में भी कहीं न कहीं यही विषमता होती है।   

कभी नेल्सन मंडेला ने कहा था,“When a man is denied the right to live the life he believes in, he has no choice but to become an outlaw." उनका स्पष्ट विचार था कि 'No one is born criminal.' यही डीसीपी वर्तिका सिंह (शेफाली शाह) मानती है और कहने से परहेज नहीं करती कि अमीर और गरीब के बीच चल रहा संघर्ष और भेदभाव ही वजह बनता है जो गरीब को अपराध करने के लिए प्रेरित करता है। हालांकि शोधकर्ताओं ने कुछ मनोवैज्ञानिक कारण भी खोजे हैं जैसे, शोषण, अन्याय, अशांत बचपन आदि जिसने लोगों को अपराधी बनने के लिए प्रेरित किया। हो सकता है सीजन ३ इमनें से किसी एक वजह पर आधारित रियल क्राइम स्टोरी करे ! वैसे सीजन २ के क्रिमिनल्स भी इन कारणों की झलक दिखला जाते हैं मसलन गैंग की साइको फीमेल मेंबर करिश्मा उर्फ़ लता(तिलोत्तमा सोम ) !  

स्टोरी नैरेट करें तो जहां पहला सीजन 2012 के निर्भया गैंगरेप मामले पर आधारित था, वहीं सीजन 2 कच्छा-बनिया गैंग द्वारा किये गए  अपराधों और उसके बाद हुई पुलिस जांच का एक काल्पनिक संस्करण  है। दरअसल नाइंटीज में एक डिनोटिफाइड ट्राइबल गैंग का खूब आतंक था। आखिरी बार 2003 में इस गैंग के तब भी होने के कुछेक सुराग मिले थे. ये गैंग कच्छा-बनियान पहनकर डकैती किया करता था. पर यहाँ मामला है कि वर्तमान समय में ये दोबारा कैसे सक्रिय हो गया ? अचानक दिल्ली में संपन्न सीनियर सिटीजन केटेगरी के नागरिकों के घरों में आधी रात को घुसकर उनकी हत्या कर दी जा रही है, कीमती सामान , रुपये पैसे लूट लिए जा रहे हैं। मोडस ऑपरेंडी (modus operandi) वही कच्छा बनियान गिरोह वाली है कि इसके सदस्य अंतःवस्त्रों (अंडरक्लॉथ्स या इनरवेअर्स) में आते हैं ; वे अपने शरीर पर तेल भी लगाते हैं जिससे यदि पुलिस या पब्लिक से सामना हो जाए तो पीछा करने के दौरान उन्हें पकड़ना मुश्किल हो । क्या उसी ट्राइब की पैदाइश यंगर जेनेरेशन ऑफ कच्छा-बनियान गैंग है ? एक के बाद एक अनेकों वारदातें हो जाती हैं, डीजीपी वर्तिका चतुर्वेदी की नाक में दम हुआ पड़ा है, सूत्र बिखरे पड़े हैं, होम मिनिस्ट्री  कमिश्नर को जवाब तलब कर रहा है, कमिश्नर विजय(आदिल हुसैन ) वर्तिका पर प्रेशर बनाये हुए है।  जनता, मीडिया और प्रेस अलग पीछे पड़ी है ! अपनी टीम के साथ वर्तिका, जिसमें ट्रेनी एसपी नीति सिंह(रसिका दुग्गल) , इंस्पेक्टर भूपेंदर(राजेश तैलंग ), जयराज(अनुराग अरोड़ा) , सुधीर(गोपाल दत्त), सुभाष(सिद्धार्थ भारद्वाज)  समेत और भी कई लोग हैं, 24x7 केस सॉल्व करने में लगी हुई है।  

सीजन २ ने यूएसपी बरकरार रखी है, वर्तिका के नेतृत्व में शो क्रिमिनल्स की तलाश पर आधारित है।  क्राइम से ज्यादा किरदारों को अहमियत है। क्राइम को बेवजह सनसनीखेज नहीं बनाता, नाटकीय नहीं बनाता बल्कि व्यूअर्स फील करता है किरदारों को ! क्राइम में लूट, नृशंस हत्याएं शामिल हैं फिर भी ओटीटी कल्चर से परहेज रखा गया है। ना तो पुलिसकर्मी ना ही संदेह के घेरे में आये जरायम की दुनिया के लोग और ना ही रियल क्रिमिनल्स ओवर द टॉप लैंग्वेज बोलते हैं ! गालियां, असभ्य भाषा , अश्लीलता आदि तमाम चीजें नदारद है ! फिर भी शो दमदार है, कनेक्ट करता है क्योंकि सिंपल कहानी का ट्रीटमेंट आला दर्जे का है। हर सिचुएशन टेंशन बढ़ाती जाती है जिसे कंट्रीब्यूट करते हैं छोटे छोटे प्रतीक (मसलन स्ट्रीट डॉग्स से चौंकना), क्रिमिनल हंटिंग के लिए भागदौड़, तीन मेन किरदारों की प्रोफेशनल लाइफ बनाम पर्सनल लाइफ के दुविधा भरे पल, मीडिया ट्रायल एंगल, फिल्मांकन और कैमरा वर्क, बैकग्राउंड म्यूजिक आदि आदि ! साथ ही छोटे बड़े सभी किरदारों के लिए कलाकारों का चयन तो कुछ ऐसा किया गया है कि कहावत याद आती है, 'देखन में छोटे लगत घाव करें गंभीर।' हर किरदार का एक्सप्रेशन बोलता है ! नाटकीय संवादों की ज़रूरत ही जो नहीं है; उतना ही बोलवाया गया है जितना आवश्यक था ! भाषाई पंच शालीन हैं मसलन 'कई बार बचने के लिए भागने से बेटर होता है कि छिपा जाए ........ मशीन झूठ नहीं बोलती, आदमी झूठ बोलता है.........दिल्ली शहर है  यहाँ मांग के नहीं मिलता न छीन के लेनी पड़ती है........'  पुलिस टीम के आला अफसरों के बीच के संवाद अंग्रेजी में होते हुए भी सादगी से परे नहीं हैं, सो अखरते नहीं है ! और जब टेंशन पीक छूता है, थ्रिलिंग और चिलिंग दोनों साथ साथ होती है।

सीरीज़ पुलिस की "पुलिसिया" इमेज को तोड़ती है, परंतु  एप्रोच वन साइडेड नहीं है।  पुलिस का स्याह पक्ष भी दिखाती है लेकिन विस्तार नहीं देती ! पहला सीजन खूब भाया था, सराहा भी गया था ; बड़ी वजह थी निर्भया मामले का ज्वलंत होना ! लेकिन ईमानदारी से देखेंगे तो दूसरा सीजन भी अच्छा लगेगा, कह सकते हैं उन्नीस भर ही है। फिर जाने पहचाने किरदार हैं तो कनेक्ट तुरंत हो जाता है ! शो का एक दिलचस्प एलिमेंट है कि आधे तक 'क्रिमिनल्स कौन है' को लेकर सस्पेंस बना हुआ रहता है, पुलिस भी मिसगाईडेड है और फिर अचानक शो गैंग का खुलासा कर देता है जिसे पकड़ने के लिए पुलिस नए सिरे से जोर शोर से लग जाती है। यक़ीनन पुलिस की जर्नी का रोमांच और थ्रिल एंगेजिंग है ! 

एक्टिंग की बात क्यों करें ? छंटे हुए कलाकार हैं तो अभिनय भी छँटा हुआ ही न करेंगे ! किस किस की बात करें ? सभी एक से बढ़कर एक है ! शेफाली शाह की तो ऑंखें ही लैंग्वेज हैं !  हाँ,  सरप्राइजिंग एलिमेंट हैं, तिलोत्तमा शोम।  गजब की साइको लगी है वो ! अंततः शो अनुत्तरित छोड़ देता है, 'Unfortunately we seldom understand why people commit these types of crimes, Criminals can't explain it when we ask."   हाँ , एक सस्पेंस रह जाता है जिसका अनसुलझा रहना ही नियति है ! वह है सिस्टम के टॉप आर्डर का ईगो जिसे मातहत की उपलब्धि गवारा नहीं होती ! वर्तिका का प्रमोशन विथ ट्रांसफर होता है किसी रिमोट जगह के लिए, चूंकि हिम्मत की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ; after all courage comes at a price !   

                        

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Prakash Jain

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