ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब मशहूर बौद्धिक अभिनेता नसीर ने अफगानिस्तान में तालिबानी राज लौटने पर खुशी मनाने वालों को अपने वीडियो में संदेश दिया। उन्होंने अपने वीडियो संदेश में कहा, "हालांकि अफगानिस्तान में तालिबान का दोबारा हुकूमत पा लेना दुनिया भर के लिए फिक्र की बात है, इससे कम खतरनाक नहीं है कि हिंदुस्तानी मुसलमानों के कुछ तबकों का उन वहशियों की वापसी पर जश्न मनाना। आज हर हिंदुस्तानी मुसलमान को अपने आप से ये सवाल पूछना चाहिए कि उसे अपने मजहब में सुधार और आधुनिकता चाहिए या वो पिछली सदियों के वहशीपन के साथ रहना चाहते हैं।"
बात अच्छी की उन्होंने लेकिन उनके इंडियन इस्लाम या हिंदुस्तानी मुसलमान के कांसेप्ट से सख्त एतराज है। क्या वे कह सकते हैं कि पवित्र कुरान की समस्त आयतों से वे सहमत नहीं है ? उन्हीं आयतों की बिना पर ही तो करोड़ों कथित हिंदुस्तानी मुसलामानों ने शाहबानों फैसले को बदलवाने की ठान ली और वोटों की राजनीति वश उनके दवाब में आकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने संसद के जरिये पलट दिया। ठीक वैसा ही माहौल बना था ट्रिपल तलाक कानून को रद्द कराने के लिए ! हिंदुस्तानी मुस्लिम तब भी चुप थे जब सैटेनिक वर्सेज पर बैन लगाने के लिए हायतौबा मची थी; जब कश्मीरी हिन्दुओं को विस्थापित किया गया और हाल ही जब कमलेश तिवारी का सर कलम करने का फ़तवा जारी किया गया था ! ऐसा लगता है नसीरुद्दीन शाह तालिबान की भर्त्सना करने के क्रम में रूढ़िवादियों (कट्टरपंथियों ) को तो कोस रहे हैं लेकिन रूढ़ियों से उन्हें परहेज नहीं है।वरना वे खुलकर कहते तालिबान इस्लाम विरोधी है और जो तालिबान कर रहा है वो इस्लाम में हराम है।
सीधी सी बात है केवल एक ही इस्लाम है; इंडियन इस्लाम जैसी कोई बात है ही नहीं ! कट्टरपंथ की जमात तो हर धर्म में होती है !सवाल तब उठता है जब धर्म पर कट्टरपंथ हावी हो जाता है और ऐसा हर युग में सिर्फ और सिर्फ बल प्रयोग से ही संभव हुआ है जिसे आतंकवाद कहते हैं।
नसीर ने कह तो दिया और एकबारगी मान भी लें कि उनके दिल की आवाज है चूंकि उन्होंने मिर्जा ग़ालिब को भी क्वोट किया - मेरा रिश्ता अल्लाह मियां से बेहद बेतक्कलुफ़ है। मुझे सियासी मज़हब की कोई ज़रूरत नहीं है।हिंदुस्तानी इस्लाम हमेशा दुनिया भर के इस्लाम से अलग रहा है और खुदा वो वक्त न लाए कि वो इतना बदल जाए कि हम उसे पहचान भी न सकें; उनकी बेतक्क्लुफ़ी उन्हीं भारतीय मुसलामानों को रास नहीं आई। कइयों ने तो उनपर "भक्तों" के पाले में चले जाने का भी आरोप मढ़ दिया। यही नसीर हमेशा खूब भा रहे थे चूंकि वे वर्तमान भाजपाई सरकार की हर मुद्दे पर खूब खिलाफत कर रहे थे और वे घोषित मोदी विरोधी के रूप में स्थापित थे।
कुल मिलाकर उनके भारतीय इस्लाम की दुनिया के दूसरे हिस्सों में इस्लामी परंपराओं से की गयी तुलना के फलसफे से कई मुसलमान नाराज़ हैं और तमाम वे लोग शाह पर गलत तरीके से तुलना करने का आरोप लगा रहे हैं। पत्रकार सबा नकवी महिला हैं फिर भी अव्वल दर्जे के एंटी वीमेन तालिबानी क्योंकर उन्हें सुहाते हैं , वे ही जाने ? उन्होंने शाह की टिप्पणियों को ट्रैप बताया जो अनावश्यक रूप से भारतीय मुसलमानों पर तालिबान को अस्वीकार करने का बोझ डालता है। वे कहती हैं , "इतने सारे भारतीय मुसलमानों को निंदा करने के लिए क्यों कहा जा रहा है? क्या उन्होंने तालिबान को चुना या आमंत्रित किया है?" एक अन्य जाने माने पत्रकार और टिप्पणीकार को शाह का बयान अनावश्यक और दुर्भवनापूर्ण लगा। एक अन्य पत्रकार रिफत जावेद लिखते हैं, "भारतीय, पाकिस्तानी या तालिबानी इस्लाम नाम की कोई चीज नहीं है। इस्लाम क्षेत्र या उसके अनुयायियों के अनुसार नहीं बदलता है।"
आजकल फैशन सा है या कहें तो अतिज्ञानी वाली वृति है कि इंटेलेक्चुअल क्लास कोई भी बात बिना तुलना के करती ही नहीं ! दरअसल यही उनका पूर्वाग्रह है जिसे अधिकांश परे नहीं रख पाते और विवाद खड़े हो जाते हैं।
अब बात करें एक अन्य हिंदुस्तानी मुस्लिम बुद्दिजीवी फ़िल्मी हस्ती जावेद अख्तर की ! उनकी तुलना को सर आँखों पर लिया कथित इंडियन मुस्लिमों ने ! क्यों लिया बताने की जरुरत नहीं है ! जनाब एनडी टीवी की किसी बहस में थे और उसी दौरान तालिबान की आलोचना करते हुए उन्होंने आरएसएस की तुलना तालिबान से कर दी। ऑन ए सिंपल नोट उन्हें बिल्कुल परहेज करना चाहिए था ! ऐसा नहीं है कि वे अनजान थे कि उसी संघ परिवार से जुड़े लोग आज इस देश की राजनीति को चला रहे हैं, राज धर्म का पालन कर रहे हैं ! उनका बयान उनकी सोची समझी नीति थी। सच्चाई तो यही है यदि आरएसएस की विचारधारा तालिबानी सरीखी होती तो क्या वे इस तरह की बयानबाज़ी कर पाते ? कदापि नहीं ! सिर्फ इसी एक तर्क से उनके बयान का खोखलापन जाहिर हो जाता है।
तो उन्होंने क्या कहा था ? बहस के दौरान उन्होंने कहा था, ''जिस तरह तालिबान एक इस्लामी राष्ट्र चाहता है, ऐसे लोग भी हैं जो हिंदू राष्ट्र चाहते हैं। ये सभी लोग एक जैसी विचारधारा के ही हैं भले ही ये मुसलमान हों, ईसाई हों, यहूदी हों या हिंदू हों।" और भी उन्होंने कहा," ज़ाहिर तौर पर तालिबान बर्बर है और उसके कृत्य निंदनीय हैं, लेकिन जो लोग आरएसएस, बजरंग दल और बीएचपी जैसे संगठनों का समर्थन करते हैं, वो सब एक जैसे ही हैं।"
तुलना किसी भी द्द्ष्टिकोण से उचित नहीं थी लेकिन जावेद अख्तर ने की क्योंकि उनकी बेवजह अदावत है, पूर्वाग्रह है मौजूदा सरकार से ! निःसंदेह आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद् कट्टर हैं लेकिन उनसे जुड़े करोड़ों हिंदू तालिबानी जैसे बर्बर और वहशी तो कदापि नहीं है। फिर कट्टरता और चरम पॉइंट ऑफ़ व्यू इस्लाम से ज्यादा किस धर्म में हैं ? और हिंदू तो बेचारे कट्टरता के मामले में किसी ईसाई या किसी यहूदी से बहुत ही पीछे हैं !
एकबारगी जावेद अख्तर से इत्तफाक रखें तो पिछले सात सालों से हिंदू सरकार है ! तो वे बतावें सरकार का कौन सा कदम और कौन सी योजना भेदभाव की रही है ? गिनेचुने कट्टरपंथी घटनाओं के हवाले से तमाम आलोचक २० करोड़ मुसलामानों के लिए सरकार को खतरा बता देते हैं तो सवाल उनसे ही बनता है सौ करोड़ की बहुल संख्या के खिलाफ भी तो घटनाएं कम नहीं हुई हैं ! तमाम आलोचक खुलकर हर प्लेटफार्म पर सरकार की खूब आलोचना करते हैं, अक्सर मर्यादाहीन भी हो जाते हैं ; क्या यही प्रमाण नहीं है इस बात का कि बात कुछ और है और मंशा कुछ और ही है जो सही तो कदापि नहीं है। दरअसल मंशा समझने के लिए भी किसी राकेटसाइंस की जरुरत नहीं है। जावेद अख्तर , नसीरुद्दीन शाह , शबाना आजमी और अन्य का बनाया फोरम "इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेक्यूलर डेमोक्रेसी" कब से संकेत दे रहा है ! थोड़ा सा जोर डाले तो क्रोनोलॉजी स्पष्ट है ; सोची समझी रणनीति के तहत पहले नसीर आये इंडियन इस्लाम का कांसेप्ट लेकर और फिर जावेद अख्तर अवतरित हो गए आरएसएस और अन्य हिंदू संगठनों को तालिबानी बताने के लिए !
और अंत में कैसे विश्वास हो कि "ये तेरा घर ये मेरा घर किसी को देखना हो गर,तो पहले आ के माँग ले, मेरी नज़र तेरी नज़र...." सरीखी नज्म जावेद साहेब ने ही लिखी हैं ? चूँकि हकीकत है उन्होंने ही लिखी है तो कड़वे अल्फाज उन्हें शूट नहीं करते ; बेहतर होगा वे बड़प्पन दिखाएं और वापस ले लेवें !
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