सो बैक टू पवेलियन अच्छा लगना UCC की चाहत तो नहीं मजबूरी ही कही जा सकती है ! समान नागरिक संहिता की समय समय पर मांग हर फोरम पर उठती रही है। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में इस बाबत टिप्पणियां होती रही हैं जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण शाहबानो केस किसने नहीं सुना होगा ? और जो नहीं जानते होंगे, उन्हें सेक्रेड गेम्स के गणेश तायकुण्डे(नवाजुद्दीन सिद्दीकी) ने खूब बता दिया था, "वो राजीव गांधी भी ऐसा इच किया था। शाह बानो को अलग जलाया देश को अलग। १९८६ में शाह बानो को तीन तलाक दिया उसका पति, वो कोर्ट में केस लड़ी और जीती। लेकिन वो प्रधानमंत्री राजीव गांधी वो '---' (डरपोक) बोला चुप बैठ औरत। कोर्ट का केस उलटा कर दिया और शाह बानो को मुल्लों के आगे फेंका। इस पर उसको हिंदुओं से बोहोत गाली पड़ी और उनको ख़ुश करने के लिए टीवी पर रामायण शुरू किया। हर संडे सुबह पूरा देश चिपककर टीवी देखता था और इनमें सबसे बड़ा भक्त अपना बंटी। बंटी को तभी समझ में आया था कि भगवान के रास्ते चलने से सारा रास्ता खाली हो जाता है।"
सेक्रेड गेम्स का किस्सा बखूबी हमारे देश के राजनीतिक कंपलसन की बानगी प्रस्तुत करता है और विडंबना ही है कि स्वाधीनता के ७५ सालों बाद आज भी वही मजबूरी जस की तस है !
चर्चा फिर शुरू हुई है चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय की सिंगल जज महिला जस्टिस प्रतिभा सिंह ने एक महिला के खिलाफ फैसला सुनाते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड के संदर्भ में जो सारगर्भित टिप्पणियां की हैं उनसे यूनिफॉर्म सिविल कोड के लागू होने की एक बार फिर आस सी बंधी है ! परंतु चूंकि न तो लोगों का मिजाज बदला है, न ही फासले मिटे हैं तो आस को आसरा कैसे मिले ?
न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने क्या कहा है ? विस्तार में जाने की जरूरत है ! समान नागरिक संहिता (UCC) पेश किए जाने का समर्थन करते हुए वे कहती हैं कि अलग-अलग ‘पर्सनल लॉ’ के कारण भारतीय युवाओं को विवाह और तलाक के संबंध में समस्याओं से जूझने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। आधुनिक भारतीय समाज ‘धीरे-धीरे समरूप होता जा रहा है, धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध अब खत्म हो रहे हैं’ और इस प्रकार समान नागरिक संहिता अब उम्मीद भर नहीं रहनी चाहिए।
आदेश कहता है , "भारत के विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों के युवाओं को जो अपने विवाह को संपन्न करते हैं, उन्हें विभिन्न पर्सनल लॉ, विशेषकर विवाह और तलाक के संबंध में टकराव के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।’ जस्टिस ने शाहबानो केस का जिक्र भी किया और स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद ४४ में राज्य द्वारा अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को हकीकत में बदलने की उम्मीद अब और नहीं टाली जा सकती।
शाह बानो मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पाने में मदद करेगी। यह भी कहा गया था कि सरकार पर देश के नागरिकों को समान नागरिक संहिता के लक्ष्य तक पहुंचाने का कर्तव्य है। लेकिन कब कब क्या क्या हुआ, कैसे हुआ और क्यों हुआ ; कुछ न कहो जो हुआ सो हुआ !
दरअसल, दिल्ली हाई कोर्ट के सामने ये सवाल खड़ा हो गया था कि तलाक को हिंदू मैरिज एक्ट के मुताबिक माना जाए या फिर मीणा जनजाति के नियम के मुताबिक। पति हिंदू मैरिज एक्ट के मुताबिक तलाक चाहता था, जबकि पत्नी का कहना था कि वो मीणा जनजाति से आती है लिहाजा उस पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता। इस वजह से उसके पति द्वारा दायर फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी खारिज की जाए। पति ने हाईकोर्ट में पत्नी की इसी दलील के खिलाफ अर्जी दायर की थी। कोर्ट ने पति की अपील को स्वीकार करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरूरत महसूस की। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि इस फैसले को कानून मंत्रालय के पास भेजा जाए ताकि कानून मंत्रालय इस पर विचार कर सके।
अब थोड़ा भूतकाल में जाएँ तो सबों की हिपोक्रेसी एक्सपोज़ होती है ! तब भी जब UCC पर किसी भी प्लेटफार्म पर बहस होती थी, हिंदू मुस्लिम होता था और आज भी वही हो रहा है। सितम्बर २०१८ में तो भारत के कानून आयोग ने राय तक दे दी कि यूनिफॉर्म सिविल कोड की इस वक्त न ज़रूरत है और न ही यह अनिवार्य है। देश की विविधता की दुहाई देकर अलग अलग पर्सनल कानूनों की पैरवी की जाती रही। विविधताओं को समान नागरिक संहिता के मार्फ़त एक सूत्र में बांधने की कोशिशों को यूँ दलगत राजनीति और धर्म के लिए धत्ता बताने को कुतर्क न कहें तो और क्या कहें ?
सिर्फ अभी ही नहीं, समय समय पर महसूस भी होता रहा है देश की आकांक्षा अब समान नागरिक संहिता की है। उच्चतम न्यायालय कहता रहा है, संविधान में तो है ही। कब तक लोग मजहबी आधार पर बने पर्सनल कानूनों से पीड़ित होते रहेंगे ? कहीं न कहीं तुष्टिकरण की राजनीतिक सोच ने इसे साकार नहीं होने दिया। कोई जवाब दे क्यों अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में रहने वाले अपने तमाम पर्सनल लॉ भूल कर पर्सनल मामलों में वहाँ के कानूनों से बंधकर रहते हैं ?
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