इस कोरोना महामारी के दौरान सबसे ज्यादा SHE घुट रही हैं , पीस रही हैं !   

सुनते हैं कि कोरोना वायरस ने महिलाओं पर थोड़ा रहमोकरम बनाये रखा है इस मायने में कि मर्दों की तुलना में कम संक्रमित हुई हैं , कम हॉस्पिटलाइज हुई हैं और मरी भी कम हैं ! थोड़ा हार्श जरूर लग सकता है लेकिन देखा जाए तो कोरोना का रुख भी पितृसत्तात्मक ही रहा, औरतों को मर्दों के हवाले जो कर दिया ! 

Rising woman power

कल ही खूब फोटोशॉप हो रहे थे नारी शक्ति के , फेमिनिज़्म के चूंकि केंद्र सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या शुभ अंक ११ पर जो पहुँच गयी ! परंतु सच्चाई बहुत ही कड़वी है ! चूंकि कोरोना काल चल रहा है तो बता दें इस दौरान महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हुई है। पेट्रियार्की भूलकर अपने चहुँ ओर देखें तो ऐसा हम सभी फील भी कर रहे हैं ! 

हम सभी जानते हैं कि  भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले १० गुना ज्यादा ऐसा घरेलू काम करती हैं, जिसके लिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता है। कोरोना काल में लोअर मिडिल क्लास और सेमी अपर मिडिल क्लास ग्रुप के परिवारों में भी संसाधनों और सुविधाओं की कमी हुई हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता। नतीजन महिलाओं को अपने मद में कटौती करनी पड़ी है और आंकड़ें बताते हैं कि प्रति दस में से एक महिला को भूखा रहना पड़ा है और शायद अभी भी रहना पड़ रहा हैं। १६ फीसदी महिलाओं को सैनिटरी और आवश्यक हेल्थ सर्विसेज मय गर्भ निरोधक उपायों  से स्वयं को वंचित रखना पड़ा है चूँकि एक तो पैसों का अभाव है और दूसरे पहुँच भी नहीं रही है ।    

हालात ऐसे बन गए हैं कि गत तीन दशकों में लैंगिक समानता को लेकर जो सुखद स्थिति बनी थी , हालिया कोरोना क्राइसिस के तक़रीबन दो सालों में लुप्तप्रायः सी हो चली है। महिलाएं पहले के मुक़ाबले कहीं ज्यादा घरेलू काम कर रही हैं और परिवार की देखभाल भी ज़्यादा कर रही हैं। घर घर देखें तो महिलाओं के , जो पहले भी पुरुषों की तुलना में तीन गुना अधिक अवैतनिक काम कर रही थीं , अवैतनिक काम के घंटे दोगुने हो चले हैं। 

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी .......

कोरोना काल में महिलाओं पर हिंसा और शोषण में भी बढ़ोत्तरी हुई है और  मेरिटल रेप भी बढ़ें हैं। आर्थिक वजह तो है ही, और कई प्रत्यक्ष और परोक्ष वजहों ने भी खूब कंट्रीब्यूट किया है। सुनने में अजीब लगे लेकिन कटु सच्चाई है कि  पुरुषों का घरों में बना रहना भी बहुत बड़ा कारण बना। अनेकों पुरुष , जिनके अपनी पत्नी के अलावा अन्य किसी महिला से संबंध थे या यौनेच्छाओं की पूर्ति के अन्य साधन भी उपलब्ध थे, घरों में बने रहने से वे ऑप्शन खत्म हो गए और उनकी पत्नियों की शामत ही आ गयी ! 

मिडिल क्लास की महिलाएं छोटा मोटा काम मसलन ब्यूटी पार्लर आदि किया करती थीं लेकिन वे बेरोजगार हो गयीं और साथ ही पतियों की नौकरियां छूटी या कमाई कम हुई तो मुश्किलें और बढ़ीं !  गरीब परिवारों को मुफ्त राशन, सीधी आर्थिक मदद और कुछ अन्य तरीकों से सहायता दी गई है लेकिन मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई है। मध्यम वर्गीय लोगों का आत्मसम्मान बहुत जल्दी आहत होता है और अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहते हैं। ऐसी हालत में कई परिवार कर्ज के बोझ तले भी दबते गए हैं, जिससे हिंसा और शोषण के मामले और बढ़े हैं।  

समस्याएं कैसे मल्टीप्लाई हुईं, समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। कोरोना काल में कई वजहों से लोगों ने डोमेस्टिक हेल्प की छुट्टी की; एक तरफ घर के काम का सारा बोझ महिलाओं पर आ गया और दूसरी तरफ डोमेस्टिक हेल्प ने अपनी इनकम खोयी तो उनके आर्थिक हालात बदतर हुए। बच्चों की स्कूलिंग भी एक बड़ी समस्या बनी क्योंकि बच्चों को घर में स्कूलिंग देने का सारा बोझ महिलाओं पर ही आया। साथ ही सारा दिन घर पर रहने के चलते उनकी माता-पिता या सास-ससुर की देखभाल की जिम्मेदारी भी बढ़ी।चूंकि हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है कि क्या किचन, क्या बुजुर्गों की देखभाल और क्या ही बच्चों की देखभाल , सारे ही महिलाओं के ही माने जाते हैं।  ऐसे में महिलाओं का अपना जीवन खत्म हो गया और उनके पास आराम के घंटे नहीं बचे।  

एक और बात अमूमन देखी जाती है जब कभी घरेलू परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न होती हैं कि कामकाजी कपल में से किसी एक को नौकरी या काम छोड़ना है तो फीमेल पार्टनर को ही छोड़नी पड़ती है मर्जी से हो या बेमन से ही सही ! यही तो पुरुषवादी सोच है , मानसिकता है। हमारे देश में तक़रीबन अस्सी फीसदी महिला घर में बढे कामों की वजह से काम छोड़ती है और वे बच्चों को पालने से लेकर बुजुर्गों की देखभाल तक कुछ भी हो सकते हैं। विडंबना ही है जब परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती हैं, महिलाओं के साथ सामंजस्य बैठाने के बजाय उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। फिर कोरोना काल में तो सुरक्षा की चिंता और ट्रेवल करने की दिक्क्तों ने भी उनके नौकरी छोड़ने में खूब कंट्रीब्यूट किया है।  

आंकड़ें भी यही कह रहे हैं।  वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हालिया 'जेंडर गैप इंडेक्स २०२१' रिपोर्ट यही इंगित करती है कि भारत २८ पायदान लुढ़क कर १५६ देशों के बीच १४० वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाओं के अर्थव्यवस्था में योगदान और उनके लिए मौजूद अवसरों में पिछले साल के मुकाबले ३ प्रतिशत की कमी आई है और कुल लेबर फोर्स में उनका योगदान सिर्फ २२ फीसदी रह गया है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में महिलाओं की बेरोजगारी दर पुरुषों के मुकाबले दोगुनी है और पुरुषों के मुकाबले ज्यादा महिलाओं ने कोरोना काल में नौकरियां खोई है। आंकड़ों के मुताबिक पहले जहां महिलाएं प्रति सप्ताह ७७० रुपये कमा रही थीं, वहीं अब उनकी कमाई घटकर १८० रूपये प्रति सप्ताह रह गई है। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि जिन महिलाओं की नौकरियां गई हैं, उनमें से ज्यादातर ने नौकरियों की तलाश ही छोड़ दी है। 

कोरोना क्राइसिस में एक और दुखद ट्रेंड देखने को मिला कि ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में लड़कियों की कम उम्र में ही शादियां हो रही है और वजह आर्थिक ही है। और यह फेनोमेना ग्लोबल है। कांसेप्ट जो काम कर रहा है आखिर माता पिता क्या करें ?  बेटी की पढ़ाई का, पालन पोषण का खर्च  नहीं उठा सकते।  शादी के ज़रिए लड़कियों का अपना घर बस जाता है और उनके अपने घर में लोगों की संख्या कम होती है ! बिहार में तो ऐसा आम हुआ है। सातवीं आठवीं में पढ़ने वाली लड़कियों की शादी लौटे माइग्रेंट वर्कर्स से कर दी गयीं और अब वे प्रेग्नेंट है जबकि उन्हें पता ही नहीं है कि बच्चा होना क्या होता है ?      

हालांकि बात करें एजुकेशन लेवल की तो महिलाएं अग्रणी हैं। जहां जनसंख्या में महिलायें ५० फीसदी से कम है वहां ५० फीसदी से ज्यादा ग्रेजुएट लड़कियां हो रही हैं। एक प्रकार से लैंगिक असमानता ही है कि शैक्षणिक स्तर में अग्रणी रहते हुए भी जहाँ ७४-७५ फीसदी पुरुष कामकाजी है वहां सिर्फ २२-२३ फीसदी महिलायें ही कामकाजी है। और इस असमानता का कारण ही पीढ़ियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच है। 

लेकिन आशा की किरण नजर आती है जब हम कुछेक क्षेत्रों में महिलाओं को आगे बढ़ता हुआ देखते हैं। २०१९-२० में लिस्टेड कंपनियों में महिला निर्देशकों की संख्या ८ फीसदी से अधिक थी और आज तक़रीबन ६४ फीसदी लिस्टेड कंपनियों में कम से कम एक महिला डायरेक्टर हैं। कुछ तो इस दिशा में बनाये गए लेजिस्लेशन का नतीजा है साथ ही सुखद स्थिति बनी है कि मौजूदा कंपनियों के सीईओ में १.७ फीसदी महिलायें हैं। यही ट्रेंड पॉलिटिक्स में भी देखने को मिल रहा हैं जहां चुनाव दर चुनाव चयनित महिला विधायक और सांसद बढ़ रही हैं। और ऐसा हर फील्ड में हो रहा है, लॉ हो या एजुकेशन हो या सोशल एक्टिविज्म हो।  

यदि कोरोना क्राइसिस न आती तो निश्चित ही महिलाओं की स्थिति और बेहतर होती। चूंकि लड़कियों के संदर्भ में  सामाजिक संरचना के बदलाव की शुरुआत हो चुकी है, मान लीजिये सेटबैक टेम्पररी ही है। और फिर हर फील्ड में महिलाओं के नाम और काम के साथ बढ़ते योगदान से उम्मीद तो यही रखनी चाहिए कि जो भी कोरोना जनित सेटबैक है वो धराशायी होगा !

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Prakash Jain

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