"रे" को ट्रिब्यूट है या नेटफ्लिक्स ने भुनाया है "रे" के नाम को ! 

"इंस्पायर्ड बाय" और "बेस्ड ऑन" में क्या फर्क है ?  अंग्रेजी में थोड़ा अच्छा समझ आता है ; "Based on : It's supposed to be based on facts without anything really adding to it जबकि Inspired by : An event or person's story inspire an oroginal narrative with creative license." निःसंदेह कहानियां अच्छी गढ़ी गयी हैं लेकिन दो ऐतराज हैं - पहला दो ऑरिजिनल नाम "बहुरूपी" और "स्पॉटलाइट" क्यों अडॉप्ट किये ? दूसरा उन्हीं दो एडॉप्शन वाली कहानियों में ओटिटी कल्चर क्योंकर हावी हो गया ? "रे" की कहानियों की बोल्डनेस अश्लील भाषा की मोहताज तो नहीं थी और ना ही एरोटिक पिक्चराइजेशन की ! 

खैर ! आपत्तियां दर्ज हुई !  चार एपिसोड की एंथोलॉजी सीरीज की दो कहानियों का निर्देशन श्रीजीत मुखर्जी ने किया है, एक का निर्देशन अभिषेक चौबे ने और बची एक का वसन बाला ने ! इन चारों कहानियों की स्क्रीनप्ले लिखने का काम शेयर किया है नीरेन भट्ट और सिराज अहमद ने ! तो कहानियां इनकी ही हुई ना भले ही उन पर छाप या प्रभाव "रे" की कहानियों का हो ! कुछ वैसा ही साउंड नहीं करता क्या मैं गांधियन तो हूँ लेकिन गांधी नहीं हूँ ?  

बहुमुखी महानायक सत्यजीत रे

एक बात तो स्पष्ट हुई सत्यजीत रे की तमाम शार्ट स्टोरीज़ (सैंकड़ों हैं) रेप्लिकेट हो सकती हैं मौजूदा नैरेटिव में बशर्ते क्रिएटर उन्मुक्त उड़ान भर सकें उन्हें जीवंत बनाने के लिए और एहसास करा दें कि कहीं आसपास ही घटी हैं या घट रही हैं ! इस कसौटी पर ये सीरीज निश्चित ही कामयाब हुई है।अब कहानियों की बात कर लें, उनकी हदें टटोल लें !      

फॉरगेट मी नॉट  "रे" की 'Bipin Chaudhary's  memory loss'  से प्रेरित है तभी तो  गूगल बाबा के आधुनिक युग में स्मृतिभ्रम उभर आया है फॉरगेट मी नॉट में ! जहाँ तक बात मर्म की है वह कॉमन है तब के बिपिन चौधरी और आज के इस्पित रामा अय्यर में ! क्या यही सच नहीं होने जा रहा है इस कम्पूटराइज़्ड जीवन में जहां लोग यादों को डाटा की तरह ट्रीट करने लगे हैं, जब चाहा, रीसायकल बिन में भेज दिया और फिर डिलीट  कर दिया ! कोई आश्चर्य नहीं होगा जब निकट भविष्य में युवा डिमेंशिया के शिकार होने लगे !  इस्पित के ही शब्दों में रिपीट कर दें ," I'll just leave you with a thought or a fallacy. Bordering on a cliche .After this, therefore, because of this." और  "You are all corrupted with smartphones . Google it." एक परफेक्ट पर्सनल और प्रोफेशनल इप्सित के लाइफ में क्या क्या ट्विस्ट आते हैं और क्या खूब अली फजल निभाता है , बेशक काबिलेतारीफ़ है ! कुल मिलाकर इस उत्कृष्ट रहस्य्मयी रिवेंज ड्रामा को शत प्रतिशत मार्क्स देना बनता है; हालांकि बहुतों को थोड़ी खींचती नजर आ सकती है लेकिन यही खिंचाव तो आज जीवन में सच्चाई बन गयी है ! फॉरगेट मी नॉट की सारी सपोर्टिंग कास्ट मसलन श्वेता बासु प्रसाद (मैगी ), अनिंदिता बोस (रिया सरीन ), श्रुति मेनन (अमला) और अन्य मेल किरदारों के एक्टर्स ने खूब कंट्रीब्यूट किया है इस बयूटीफुल क्रिएशन को ! 

तो "रे" की बतौर फर्स्ट इंस्पिरेशन ने कमाल करवा दिया है क्रिएटर से ! शायद फर्स्ट इम्प्रैशन इज़ द बेस्ट इम्प्रैशन का कंपल्सन था ! अब आएं दूसरी कहानी बहुरुपिया पर तो यह प्रेरित है सत्यजीत रे की शार्ट स्टोरी "बहुरूपी" से !  इसे भी श्रीजीत मुखर्जी ने ही डायरेक्ट किया है लेकिन कहीं कुछ कमी और खालीपन रह गया है ! शायद नाम इसका 'कॉन मैन' या 'चीटर' या 'भांड' रख दिया होता तो इसे "बहुरूपी" की कसौटी पर नहीं कसा जाता और तब ये भी अच्छी क्रिएशन कहलाती !  बहुरुपिया की कहानी इस एक लाइन में समाहित है, "आप पहले इंसान नहीं हैं और आखिरी इंसान भी नहीं होंगे जो अपने आप को खुदा , भगवान्  समझ लेता है और मुंह के बल गिरता है।" क्रिस्टोफर मार्लो के डॉक्टर फ़ॉस्टस या फिर शेक्सपियर के मैकबेथ की बात करें, अभिमान ही था जो इन पात्रों के पतन का कारण बना और इस एपिसोड ने नायक  इंद्राशीष साहा (के के मेनन) के लिए भी उसका अहंकार और अति-आत्मविश्वास ही उनके पतन का कारण बना।  कुल मिलाकर  यह एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर है, जहां इंद्राशीष (के के मेनन) उन लोगों का सामना करने का फैसला करता है जिन लोगों ने उसके साथ अन्याय किया है। मेकअप और प्रोस्थेटिक्स के साथ वह अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हो जाते हैं, लेकिन उनका ओवर कॉन्फिडेंस ही उन्हें ले डूबा ! कमियां कई हैं इस क्रिएशन में ! शुरुआत धीमी है है, हालांकि अंत रोचक बन पड़ा है !  प्रोस्थेटिक्स के साथ कुछ बेहतर काम किया जा सकता था क्योंकि यही कहानी की यूएसपी है। इसके अलावा लगता है क्रिएटर टाइम ट्रेवल के चक्कर में गडमड कर गए ! साहा का पहनावा, हेयर स्टाइल साठ के दशक का रखा है और  कलकत्ता के  ट्रामकाल में मोबाइल फोन और एप्पल लैपटॉप ढूंढ ले आये ! संवादों ने भी कई जगह गरिमा तोड़ी है मसलन " चालीस साल पहले किसी ने ....... इस्तेमाल कर लिया होता तो ये दिन न देखना पड़ता .....कौन से होंठों की बात कर रहे हो.....!" वाकई मृदुला गर्ग के विवादास्पद नावेल "चित्तकोबरा" की यादें ताजा हो गयी जिसमें कपल के तीन जोड़ी होंठों की वो बात करती है ! 

बात एक्टिंग की करें तो के के मेनन खरे उतरे हैं, हालांकि रूप बदलने के साथ साथ हाव भाव और चाल ढाल का तालमेल कहीं कहीं दोषपूर्ण है ! और जो भी कलाकार हैं , उन्होंने अपने अपने रोल अच्छे से निभाये हैं !  

धुरंधर एक्टर्स मनोज वाजपेयी और गजराज राव

तीसरी कहानी है हंगामा है क्यूँ बरपा ? इश्किया, उड़ता पंजाब और सोनचिडिया फेम अभिषेक चौबे ने इस डार्क कॉमेडी को डायरेक्ट किया है। "रे" की ऑरिजिनल शार्ट स्टोरी बरिन भौमिक की बीमारी के काफी करीब है कहानी ! बारिन भौमिक नजरुल और बाउल गाता था और हमारे मुसाफिर अली (मनोज वाजपेयी) गजल फरमाते हैं और उनके सह यात्री हैं असलम बेग (गजराज राव ) ! इस कहानी का ज्यादातर हिस्सा ट्रेन में ही गुजरता है और ऐसे में कैमरा वर्क मोह लेता है। अब जब  दो वेटरेन एक्टर आमने सामने हैं  तो हास्य वास्तविक सा लगता है। असलम बेग, कभी पहलवान हुआ करते थे, आजकल  खेल पत्रकार हैं। ट्रैन के सफर के दौरान बातें आगे बढ़ती है और अली को याद आता है कि करीब दस साल पहले भी उसने बेग के साथ सफर किया था। मनोज बाजपेयी और गजराज राव के शानदार प्रदर्शन, और बेहतरीन म्यूजिक के साथ ये कहानी रोमांचक होती जाती है और बीमारी क्या है बताकर रोमांच खत्म करने का अपराध तो हम नहीं करेंगे !

हर्षवर्धन कपूर

अब आएं आखिरी कहानी स्पॉटलाइट पर ! निर्देशन वासन बाला ने किया है और मूल उद्देश्य है स्पॉटलाइट और सुर्खियों में रहने के दूसरे पक्ष को दिखाना ! क्या कोई अपनी ही इमेज का शिकार हो जाता है ? हर्षवर्धन कपूर ने एक बड़े फिल्म स्टार विक्रम अरोड़ा की भूमिका निभाई है, जो रचनात्मक रूप से असंतुष्ट है और एक है दैवीय शक्तियों वाली "दीदी के दरबार में" वाली गॉड वूमेन दीदी (राधिका मदान) जिसका प्रभाव उसकी प्रसिद्धि को थ्रेट बन जाती है ! क्या विक्रम उससे मिलेगा ? क्या मिलने पर उसकी चिंताएं और असुरक्षाएं दूर होंगी ? इन सवालों का जवाब तो स्पॉटलाइट देखकर ही मिलना है ! बस इतना भर बता दें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति सबों को होगी , "हद हद करते सब गए , बेहद गयो न कोय , अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोए !" तो ट्रेंड करा दें #HowFarCanYouGo ! फिर भी शायद ज्यादातर व्यूअर्स कनेक्ट नहीं कर पाएं क्योंकि जब एक ही श्रृंखला में मनोज बाजपेयी, के के मेनन, गजराज राव और अली फज़ल जैसे अनुभवी अभिनेताओं से रूबरू हुए वहीं निर्देशक वासन बाला का मैन हर्षवर्धन कपूर कैसे गले उतरे ? उनसे गुजारिश है वे विकी के बार बार टेक हो रहे सीन और अंत में उसी टेक के रिपीट को मन लगाकर देखें तो वे स्वयं कहेंगे कल हर्ष का है ! वासन बाला की चॉइस परफेक्ट है ! उसके बडी रॉबी के किरदार में चन्दन रॉय सान्याल भी खूब जमे हैं । राधिका भी जमी हैं खासकर अपने छपरिया अंदाज में - चरण कमल नहीं गोड़ हैं उसके जिसमें फोड़ा भी हो गया है , पांच सौ बार प्रतिदिन भक्त धो धो कर रज जो लेते हैं ! प्रसिद्धि है या फिर अंधविश्वास ! हालांकि इस शो के वन लाइनर जबरदस्त हैं क्योंकि सामयिक(timely) है  मसलन "उसका चॉइस चॉइस और मेरा चॉइस नॉइज़ .......रिलिजन के लिए लोग अभी भी किसी को मार सकते है .......आजकल आदमी गोली से नहीं एक ट्वीट से उड़ जाता है। .....! और "कोई कट गया रॉबी और कोई कट लिया.." में तो तत्व ही मिल गया मानों !    

एक ओवरऑल टेक लें सीरीज का तो लगता है मानों शृंखला के निर्देशक और राइटर "रे" की कहानियों की जटिलताओं पर अपेक्षित पकड़ नहीं बना पाए और ये लाजिमी भी था ! हालांकि इन कहानियों में सामाजिक व्यंग्य, गहरा हास्य, मनोविज्ञान और अर्थव्यवस्था का बेहतरीन चित्रण हुआ है और इसके लिए पूरी टीम बधाई की पात्र है। एक स्पेशल बात, जो स्पेशल मेंशन क्लेम करती है , वह है  "फॉरगेट मी नॉट" में दिखाई गई कॉरपोरेट जगत की नयी कथित स्टार्टअप पौध की  चोंचलेबाजी !
कुल मिलाकर सीरीज का देखना एडवाइजेबल है बोले तो वर्थी टू बी रेकमेंडेड है ! मिक्स्ड फील हैं, अलग अलग रंग हैं, टुकड़ों टुकड़ों में कई प्रसंग भी अच्छे उठाये गए हैं ! और अंत में विश यू आल द बेस्ट दीदी इन ओरेगॉन ! और ऑन ए लाइटर नोट लेट अस विश अगेन "हर महत्वाकांक्षी को उसकी दीदी मिल जाए !"

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Prakash Jain

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