इस मास्टरपीस फिल्म के लिए अंग्रेजी सबटाइटल रेफर करते करते देखने का कष्ट उठाना बनता है ! थैंक्स टू ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो ! एक बात और जो मन में हैं यदि #StayHome ना होते तो शायद किसी अच्छे हिंदी या अंग्रेजी कंटेंट की खोज में कर्णन के लिए प्ले बटन नहीं दबता ! बटन दबा नहीं कि एक बमुश्किल ९-१० साल की लड़की, जिसे शायद कोई दौरा टाइप पड़ा है और चूँकि मुंह से झाग निकल रहे हैं, बीच सड़क पर गिरी तड़प रही है, उसके आसपास से ढेर सारी बसें निकल रही हैं लेकिन कोई भी मदद को आगे नहीं आता ! बच्ची वहीं दम भी तोड़ देती है ! फिर इसी सीन का विहंगम दृश्य भी हाथों हाथ फ़्लैश होता है ! बस ! मन में तमाम सवाल घुमड़ने लगे कि एक भी बस रुकी क्यों नहीं, किसी ने मदद क्यों नहीं की, जबरदस्त सिनेकला की बानगी पहले ही सीन में है तो आखिर बात क्या है आदि आदि और फिर क्या था ढाई घंटे लगा ही दिए जवाबों के लिए !
यकीन मानिये निराशा नहीं हुई बल्कि पहली बार साउथ की फिल्मों और कंटेंट्स को लेकर जो नेगेटिव धारणा थी, आमूल बदल गयी ! अब थोड़ा गूगल किया तो पता चला कि फिल्म की स्टोरीलाइन साल १९९५ में तमिलनाडु के थोट्टुकुड्डी जिले की पोड़ियंकुलम जातीय हिंसा से प्रभावित है ! फिल्म की स्टारकास्ट में हमारे लिए परिचित सिर्फ एक ही लगा और वह है धनुष ! कम से कम हम सब उन्हें "वाय दिस कोलावेरी कोलावेरी कोलावेरी डी" गाने के लिए तो जरूर ही जानते हैं। बहुतों ने सोनम कपूर के साथ उसकी फिल्म रांझणा भी देखी ही होगी !
"कर्णन" का एंग्री मैन कर्णन धनुष है और उसके गुस्से की वजह निजी कम और सामाजिक ज्यादा है ! एक्टिंग की बात करें तो बॉलीवुड के नसीरुद्दीन शाह की तरह जहां उसकी कमर्शियल वैल्यू जबरदस्त है वहीं वह आर्टिस्टिक भी है और अक्सर उसकी फ़िल्में पॉलिटिकल एंगल भी लिए होती है ! उसे थिंकिंग क्रिकेट प्लेयर की तर्ज पर थिंकिंग हीरो कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। तभी तो वह एक्टर है स्टार नहीं ; कर्णन के किरदार में रच बस गया है। अन्य सभी एक्टर भी अच्छे हैं। कण्णन का साथी हमउम्र नहीं बुजुर्ग है, थोड़ा अलग फील दे जाता है ! सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स का शिकार एसपी है चूंकि अपर कास्ट है तो गांव के सरपंच की पगड़ी उसे नहीं सुहाती और ना ही निम्न वर्ग के होने के नाते लोगों के अच्छे और उच्च जाति वाले नाम उसे सुहाते !
फिल्म में एक सामयिक और स्वाभाविक सी लव स्टोरी भी है जिसमें कोई लुकाछिपी वाला एंगल नहीं है क्योंकि एतराज वाली बात ही नहीं है ! कर्णन की द्रौपदी है वह ! दोनों के बीच ग़लतफ़हमी भी होती है जिसका निवारण भी हो जाता है। दोनों के बीच फिल्माया गाना "थट्टा थट्टा" उनकी प्रेम कहानी का खूबसूरत चित्रण हैं जिसे गाया है स्वयं धनुष ने चिर परिचित कोलावेरी कोलावेरी डी अंदाज में ! और भी गीत कर्णप्रिय हैं , भाषा कहीं आड़े नहीं आती ! कहा भी तो गया है अच्छा म्यूजिक भाषा का मोहताज नहीं होता ; सुर , धुन और ताल मिलकर भाव समझा ही देते हैं !
फिल्म नब्बे के दशक के कई पहलुओं को भी छूती है. जहां एक गरीब गांव को कुछ हद तक ऊंचे गांव ने प्रताड़ित किया हुआ है, गांव में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन सरकारी नौकरी का भी संघर्ष है। गांव अपने विधि-विधान से चल रहे हैं, अपने ही किसी एक देवता की भी पूजा कर रहे हैं। कहानी के रूप में समाज के हर पहलू को जिस तरह से जोड़ा गया है, कर्णन की ये खासियत है ! और आज इसलिए झकझोरती है कि सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक असमानताओं के उदाहरण जहां देखो वहां बिखरे पड़े हैं !
सिंपल सी स्टोरी असरदार बन पड़ी है चूंकि तरीके से इसकी डिटेलिंग हुई है, रूपकों और पौराणिक नामों का सटीक उपयोग किया गया है। सोने पे सुहागा है फिल्म की सिनेमेटोग्राफी ! मुर्गी लेकर उड़ती , बंधे पांव घूमता गधा, गधे के बंधन का खोला जाना और फिर उसका दौड़ लगाना, जमीं पर रेंगते छोटे छोटे कीड़े, जुलूस में हाथी, खाने की थाली की ताक में बिल्ली, थाने में तितली का फड़फड़ाना, बाबा साहब अंबेडकर की दीवाल पर हिलती फोटो आदि सभी चीजें ज्यों ज्यों फिल्म बढ़ती है अंत की और, मतलब खुदबखुद समझ आने लगता है ! नामों का कहना ही क्या ? सारे ही महाभारत से लिए प्रतीत भर ही नहीं होते बल्कि सेंस भी करते हैं - कर्णन (कर्ण), दुर्योधन (कर्णन का दोस्त ) और द्रौपदी (कर्णन की प्रेमिका) !
चूंकि फिल्म कमर्शियल कम आर्ट ज्यादा है तो पहला हाफ काफी खिंच गया है जबकि उस दौरान की चीजें थोड़ी जल्दी जल्दी निकाली जा सकती थी ! कभी कभी रूपक भी भारी लगने लगते हैं, रियल कहानी से ध्यान भटकाते प्रतीत होते हैं ! लगता है हम बासु भट्टाचार्य की फिल्मों के दौर में पहुंच गए हैं, कभी 'आविष्कार' याद आती है तो कभी 'डाकू' और कभी 'अनुभव' ! लेकिन फिल्म का सेकंड हाफ सुस्त पहले हाफ को सौ फीसदी जस्टिफाई कर देता है क्योंकि दूसरा हाफ एक सेकंड के लिए भी नजर हटने नहीं देता !
एक महत्वपूर्ण बात बता दें फिल्म कर्णन को लेकर रिलीज से पहले ही एक कॉन्ट्रोवर्सी हो गयी थी ! आरोप था कि गाने "पंडारथी पुराणम" के बोल तमिलनाडु के एक जाति विशेष के लोगों को अपमानित कर रहे हैं। मेकर्स कोई विवाद नहीं चाहते थे सो उन्होंने गाने के बोल ही बदलकर "मंजनति पुराणम" कर दिया ! ऐसा विवाद खड़ा करना ही इस बात का सबूत है कि जाति व्यवस्था आज भी कितनी हावी है !
हमने जानबूझकर कहानी कहने से परहेज किया है ताकि उत्तरार्ध हर अंतर को छू जाए और यही कामना करे कि अंत के सुखद बदलाव की बयार कभी कम ना हो पाए ! कुल मिलाकर ‘कर्णन’ एक कम्पलीट फिल्म है, समाज के लिए प्रासंगिक है और जागरूकता भी लाती है ! लाजवाब कांसेप्ट है, सुंदर क्रिएटिविटी है,गजब की सिनेकला है।और जब इतने सारे गुण हो तो थोड़ा सबटाइटिल पढ़ते हुए फिल्म देखने का कष्ट उठाया ही जा सकता है !
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