फिर भी थियेटरों में गर्दा नहीं उड़ा ! क्यों ? वजह साफ है नाम ने भरमा दिया व्यूअर्स को ! वरना तो लापता लेडीज़ वास्तव में मर्मस्पर्शी भावनाओं से ओतप्रोत, हास्यपूर्ण संवादों तथा प्रफुल्लित करने वाले दृश्यों से भरपूर सुंदर, शानदार और उत्कृष्ट फिल्म है.
सोने पे सुहागा है हर कलाकार का सच्चा अभिनय ! कहानी इस मामले में यूनिक है कि उद्देश्यपूर्ण है , संदेशवाहक है. प्रवाह इस कदर रोचक और मनोरंजक है कि एक बेहद अहम् मुद्दे पर आप स्वतः ही अनुकूल हो उठते हैं. प्रोडक्शन मिस्टर परफेक्ट (आमिर खान) का है, डायरेक्ट किया है धोबी घाट फेम मैजिकल किरण राव ने. हालांकि अप्रासंगिक है, परंतु सवाल है दोनों ही परफेक्ट, दोनों की अनुरूप सृजनात्मकता और सिनेमा के लिए कमाल की आपसी अंडरस्टैंडिंग, फिर भी साथ निभा नहीं पाए ! खैर ! मुद्दा ये है ही नहीं !
दिलचस्प कहानी पर सही, सटीक और बगैर किसी नाटकीयता के गढ़ी उत्कृष्ट पटकथा, एक ज्वलंत समस्या का सरल सा प्रस्तुतीकरण सरल से समाधान के साथ पटाक्षेप करती है और चार चाँद लगा दिए हैं बेहतरीन संवादों ने, जो प्रचुर हास्य तो बिखेरते ही हैं साथ ही दो बार सोचने को भी मजबूर करते हैं कि कैसे महिला को सम्मान मिलना चाहिए और कैसे उनके साथ सम्मानजनक तरीके से व्यवहार किया जाना चाहिए. सो हैट्स ऑफ टू टीम लापता लेडीज ! यूँ तो महिलाओं के मुद्दों और पैट्रियार्की पर अब तक कई फिल्में बनीं हैं, फीमेल डायरेक्टर्स ने औरत की दशा और दिशा पर अपनी फिल्मों के माध्यम से कई बार बातें उठाई हैं और उनपर सार्थक बहस को जन्म भी दिया है. मगर निर्देशक किरण राव अपनी इस फिल्म में औरतों के मुत्तालिक पितृसत्तात्मक सोच, लैंगिक असमानता, शिक्षा, दहेज प्रथा, आत्मनिर्भरता, घरेलू हिंसा, हीनता जैसे तमाम मुद्दों की परत दर परत उधेड़ती जाती हैं. खूबी ये है कि समस्याएं सामने आती हैं हलके फुल्के अंदाज में और समाधान भी आता है हलके फुल्के अंदाज में ही.
कहानी का ताना बाना ढाई दशक पहले के ग्रामीण परिवेश के अनुरूप हैं जब मोबाइल फोनों ने दस्तक दी ही थी. 1 ट्रेन में 2 ऐसे जोड़े चढ़ते हैं जिनकी अभी अभी शादी हुई है.दोनों दुल्हनों के चेहरे पर बड़ा सा घूंघट है. ट्रेन से उतरने की जल्दी में ये दोनो कैसे लापता हो जाती हैं और फिर क्या होता है यही कहानी है.विस्तार नहीं देंगे, चूंकि उत्सुकता बनी रहे अब जब ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीमिंग चल रही है तब लोग देखें तो सही और अफ़सोस भी करें थियेटर में ना देखने का ! वरना तो बॉक्स ऑफिस ने हक़ मार ही दिया था फिल्म का.
फिल्म का क्रेडेंशियल ही है कि एक दमदार कहानी सही तरीके से पेश की जाए तो हर किरदार एसेंशियल समझ आता है, हर कलाकार को तवज्जो मिलती है. तभी तो एक रेलवे टी स्टॉल पर बर्तन धोने वाले छोटे से लड़के छोटू के रोल में सत्येंद्र सोनी भी छाप छोड़ जाता है. एक फिलॉसफर के मानिंद वह बात करता है, "घर पैसे भेजते हैं हम". जामताड़ा फेम स्पर्श श्रीवास्तव ने गाँव के नवविवाहित छोरे दीपक कुमार का किरदार खूब जिया है. जामताड़ा में भी उसने गाँव के युवा की बॉडी लैंग्वेज सही पकड़ी थी, शायद इसी वजह से उसे इस फिल्म में लिया गया. वह खरा उतरा भी है. कमसिन सी नई नवेली दुलहन फूल कुमारी के किरदार में नीतांशी गोयल की मासूमियत दिल को छू जाती है. उसका बात करने का तरीका, चलने का तरीका, अपने पति की साइकिल के पीछे बैठने का तरीका, इतना परफेक्ट है कि वह एक गांव की छोरी ही लगती हैं. एक अन्य दुल्हन है रहस्यमयी जया, जिसके रोल में प्रतिभा रांटा ने जान डाल दी है. ये तो हुए परफेक्ट फिल्म के परफेक्ट नए कलाकार ! बात करें स्थापित कलाकारों की तो पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार में धाकड़ रवि किशन ने शायद ही इतना परफेक्ट किरदार पहले किसी भी फिल्म में निभाया हो. हाँ, दारोगा जी ( पुलिस निरीक्षक ) की टेबल पर पुलिस अधीक्षक की नेम प्लेट जरूर अखरती है परफेक्ट माहौल में. वैसे रवि किशन जब भी स्क्रीन पर अवतरित होते हैं, फुल ऑन एंटरटेनमेंट दे ही जाते हैं. दुर्गेश कुमार का काम भी काफी अच्छा है. स्पेशल मेंशन क्वालीफाई करती है वेटेरन छाया कदम मंजू माई के किरदार में. एक बार फिर, हैट्स ऑफ़ टू किरण राव फॉर परफेक्ट कास्टिंग !
यूँ तो फिल्म लापता लेडीज में कमाल के वन लाइनर पंचेज़ की भरमार है, लेकिन मंजू माई वाले हार्ड हिटिंग हैं जिन्हें छाया कदम से बेहतर कौन उवाचता ? बानगी देखिये, "मेरे पति और बेटा शराब पीकर मुझे पीटते थे और फिर कहते थे जो आदमी तुमसे प्यार करता है उसे तुम्हें मारने का अधिकार है. एक दिन, मैंने भी अपने अधिकार का प्रयोग किया."........"अपने आप में खुश रहना सबसे कठिन काम है, फूल. लेकिन हाँ, एक बार जब आप इसमें महारत हासिल कर लेते हैं, तो कोई भी आपको परेशान नहीं कर सकता."........"सदियों से इस देश में महिलाओं को धोखा दिया जाता रहा है .इस ठग को 'सम्मानित लड़की' के नाम से जाना जाता है."........"मूर्ख होने में कुछ भी शर्मनाक नहीं है, लेकिन मूर्ख होने पर गर्व महसूस करना शर्मनाक है."........और अंत में वो लाइनें ज शायद मॉरल या निष्कर्ष भी है इस फिल्म का, " महिलाएं खेती कर सकती हैं और खाना बना सकती हैं. हम बच्चों को जन्म दे सकते हैं और उनका पालन-पोषण कर सकते हैं. यदि आप इसके बारे में सोचते हैं, तो महिलाओं को वास्तव में पुरुषों की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है. लेकिन अगर महिलाओं को यह पता चल जाए, तो पुरुष खराब नहीं हो जाएंगे, वे?"
यदि कहें मंजू माई के किरदार में छाया कदम सुपर स्टार बच्चन से बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं है, अतिश्योक्ति नहीं होगी !
कुल मिलाकर एक मस्टवाच फिल्म है जिसे दुर्योग से बड़े परदे पर व्यूअर्स नहीं मिले थे. परंतु यक़ीनन नुकसान व्यूअर्स का ज्यादा हुआ ! अब जब ओटीटी पर आ गई है, देख ही डालिये !
Write a comment ...