इकोनॉमी : मेरी प्रगति या अगति का यह मापदंड बदलो तुम, अभी मैं अनिश्चित हूँ !

मंदी के हौवे ने इकोनॉमी को भारी जरूर कर दिया है ! कल नोटबंदी की चौथी बरसी पर कोई तंज कस रहा था घर घर मोदी हर घर मंदी ! 

मैं जब तब निकलता रहा हूँ घर से बाहर इस कोरोनाजनित बंदिशों के बावजूद और मकसद एक ही रहा है इकोनॉमी का हालचाल लेना या समझना क्योंकि मारवाड़ी हूँ ! डिस्क्लेमर पहले ही डाल देता हूँ  दुष्यंत कुमार की सारगर्भित लाइनें क्वोट करते हुए - सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , मेरी कोशिश हैं कि ये सूरत बदलनी चाहिए ! एक बात और, जब जैसा मैंने अनुभव किया, बयान कर दिया है सो किसी तारतम्य यानि हॉर्मोनियस कंटेंट की अपेक्षा मत कीजियेगा ! फिर ना ही मैं कोई अर्थ शास्त्री हूँ, ना ही इंटेलेक्चुअल हॉर्सपावर ही है मुझ में ! हाँ , कॉमन सेंस जरूर है , सादगी भी है, दूरदर्शी भी समझता हूँ स्वयं को और सबसे पहले थोड़ा ज्यादा ही प्रैक्टिकल हूँ। कुल मिलाकर कॉमन मैन प्लस केटेगरी का हूँ क्योंकि नेवर अंडरएस्टीमेट पॉवर ऑफ़ कॉमन मैन के घोड़े पर सवार होकर मैं  तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने की सोच भी नहीं सकता था ! 

सीरियस बातें शुरू करें इसके पहले थोड़ा साल २०२० में ह्यूमर तलाश लें ! इस साल तो सिर्फ चार ही महीने हैं - जनवरी , फ़रवरी , लॉकडाउन और अब कमडाउन चल रहा है !        

मंदी समझनी हो तो व्यापारी से अच्छा कौन हो सकता है ? सो मिला अपने ही अपार्टमेंट के रेजिडेंट दो दशकों से स्थापित बिजनेसमैन से ! गुफ्तगू शुरू ही की थी तो स्वतः ही कहने लगा वो कि धंधा मन्दा है, लगता है मकान बेचना पड़ेगा ।मैंने सोचा एक ही मकान है वह भी बिक रहा है तो मैने बोला अरे कोई बात नहीं मकान फिर खरीद लेना । बोला वह बात नहीं है , मकान तो मेरे पास चार हैं लेकिन रेट सही नहीं मिल रहे हैं ।इस बिज़नेस मैन ने मात्र १५ साल के व्यावसायिक काल में ही  ४ मकान बना लिए थे। ऐसे व्यापारियों  को धंधा इसलिए मंदा लग रहा है क्योंकि पहले की तरह कमाई नहीं हो रही है और पांचवां मकान खरीदने की जगह चौथा बेचना पड़ रहा है ।    

सरकारों की बात करें तो चुनाव जीतने हैं तो अब बातें लोकलुभावन से भी आगे निकल गयी हैं ! जुमला या जुमलेबाजी का पर्याय ना बनने की होड़ में दे दनादन सब्सिडी और खर्च बढ़ा दिए जाते हैं और अब तो पहली कैबिनेट की मीटिंग में ही १० लाख नौकरियां दे दी जाएंगी , कर्जे सारे माफ़ कर दिए जाएंगे ! टैक्स वसूल होंगे नहीं और ना ही उतने बनेंगे भी ! तो भई ! चिंता किस बात की ? पिछले साल ही केंद्र सरकार ने आरबीआई से १७६००० करोड़ ले लिया था और अपना काम चला लिया था ! राज्य सरकारें भी डेफिसिट बढाती चली जाएंगी ! अभी जिस विभाग में चले जाओ सरकारी नौकरीपेशा खाली बैठे नजर आते हैं , पता नहीं १० लाख और भर्ती कर कौन सी प्रोडक्टिविटी जेनेरेट कर लेंगे ? आखिर भर्ती में भी तो खूब भाई भतीजावाद , जात पात चलेगा , आपदा में अवसर भी चरितार्थ होगा नेताओं के लिए ; कोई फ्रीफ़ोकट में नौकरी थोड़े ना देनी हैं ? बाकी भुगतने के लिए बची जनता जो तेजी हो या मंदी , हर हाल में भुगतती है।

कहीं सुना था वर्ष १९८९ में पैदा हुए तेज प्रताप के नाम पर लालू जी ने १९९३ में फुलवरिया के लोगों से नौकरी के बदले ३ कट्ठा ११ धुर और ६ कट्ठा जमीन लिखवा ली, जिसमें खरीददार के रुप में तेजप्रताप यादव और तरुण कुमार यादव वल्द लालू प्रसाद यादव नाम दर्ज है। तब तेज प्रताप की उम्र केवल चार साल थी। ऑंखोंदेखी बताऊँ तो साल १९७७-७८ याद आ रहा है जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे ! प्रदेश में बेरोजगार इंजीनियरों को सिंचाई विभाग में नौकरियां दे दी गयीं थी ! एक सुबह बेरोजगार अभियंता उठा और वह कनिष्ठ अभियंता पर पदासीन था ; हालाँकि दो सालों तक उसे कहीं पोस्टिंग नहीं मिली और घर बैठे तनख्वाह जरूर मिलती रही ! तब नौकरी पाने वाले मात्र १०००० ऐसे बेरोजगार इंजीनियर ही थे ! और आज कल्पना कीजिये तेजस्वी मुख्यमंत्री बन गए हैं और पहली कैबिनेट की बैठक ले रहे हैं और आनन फानन में १० लाख नौकरियां बाँट दी हैं ; जिनमें शिक्षक भी हैं , इंजीनियर हैं , डॉक्टर्स हैं , सफाई कर्मी भी हैं , क्लर्क भी हैं और पता नहीं कौन कौन नहीं हैं ! और कोरोना जरूर चला जाएगा लेकिन आगामी दो सालों तक ये सारे दस लाख सरकारी नौकर पोस्टिंग के इंतजार में वर्क फ्रॉम होम के टैग के साथ घरों में विथाउट वर्क बने रहेंगे !

अब एक अन्य दृष्टिकोण से मंदी को जानते हैं। समझने के लिए कार का चलना समझिये ! स्टार्ट की तो शून्य से ६० किमी की स्पीड में पहुंचने में सिर्फ कुछ सेकंड लगते हैं क्योंकि हम इंजिन की पूरी ताकत इस्तेमाल कर लेते हैं । लेकिन उसके बाद हम उसी स्पीड पर चलते रहते हैं जिसे हम मंदी कह सकते हैं क्योंकि फिर और स्पीड नहीं बढ़ती है या फिर गाड़ी ही बन्द हो जाती है। जब नई परिस्थितियां पैदा होतीं हैं तो अर्थव्यवस्थाओं में पहले तेजी आती है । जब तेजी आती है तो उस से हर व्यक्ति फायदा उठाने के चक्कर में योग्य न होने पर भी उस में घुस जाता है। भीड़ बढ़ने पर उसमें अराजकता पैदा होने लगती है, गुणवत्ता भी कोम्प्रोमाईज़ होने लगती है और फिर सरकार उसको नियंत्रित और टैक्स वसूलने के लिए नियम लाती है जिसके बाद भीड़ वहां से छंटने लगती है,उसका आकर्षण कम होने लगता है और लोग उसे मंदी का नाम दे देते हैं । शेयर मार्केट की तेजी मंदी, रियल इस्टेट की तेजी मंदी इसका उदाहरण है । यह विश्व भर में होता रहता है लेकिन भारत में इसमें सरकार , व्यापारी , उद्योगपति , जनता सभी शामिल हैं जिनकी वजह से यहां मंदी देर तक चलती है और ज्यादा नुकसान होता है ।

भारत में किसी भी क्षेत्र में पहले से कोई नियम , कानून या प्लानिंग की ही नहीं जाती है । जब किसी क्षेत्र में तेजी आ रही होती है तो हर कोई उसमें घुस रहा होता है , सरकार खुश हो रही होती है कि टैक्स मिलेगा, लोगों को रोज़गार मिलेगा , वित्तीय संस्थाएं मुनाफे का सोचती हैं । कोई नहीं सोचता है कि कुछ महीनों या साल बाद जब इसमें मंदी आएगी , घपले बाहर आएंगे तो क्या होगा और क्या करना पड़ेगा । यहां आग लगने के बाद कुओं खोदना शुरु किया जाता है । 

थोड़ा बैकड्रॉप में जाएँ ! पिछले दिनों ही बहुतों ने स्कैम १९९२ : हर्षद मेहता वेबसीरीज देखी होगी ! अस्सी के दशक के सांयकाल में कंपनियों के आईपीओ की धूम मचनी शुरू हो गयी थी। समुचित नियम कायदे नहीं थे या यूँ कहें तब की  सरकार ने ध्यान नहीं दिया तो १९९२ में ५००० करोड़ का हर्षद स्कैम हो गया ! आज के टर्म में कहें तो घोटाला ७५००० करोड़ का था !  उसके बाद सरकार की जगना ही था तो ट्रांसपेरेंट नियम बनाये गए ; सेबी आया , एनएसई की स्थापना हुई, १९९६ में डिपाजिटरी बनी, इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग को किकस्टार्ट मिला १९९४ में ! दलालों के कॉकस टूटने लगे ! नतीजन पोस्ट हर्षद मेहता यानी १९९२ से १९९९ तक शेयर मार्केट में मंदी छाई रही चूँकि लोगों को नए नियम कानूनों से तालमेल बिठाने में समय लगना ही था।  

दूसरा उदाहरण निर्माण क्षेत्र का है ।साल २००४ था सरकार ने कुछेक कदम उठाये मसलन होम लोन के व्याज पर छूट शुरू की तो बैंकों ने घर बनाने के लिए हर किसी को लोन देना शुरू कर दिया। ऐसा माहौल बना कि हर व्यापारी, क्या तो किरानेवाला , क्या ही पानमसाला बनाने वाला , क्या ही  अखबार छापने वाला, क्या ही सुनार  और क्या ही होटेलियर ; सारे ही रियल एस्टेट में कूद पड़े और लगे फ्लैट बनाने और कहानी २००९ तक चलती रही। फिर डिफ़ॉल्ट होने शुरू हुए । बिल्डरों ने जनता से भी एडवांस लिया और बैंकों से भी लोन लिया और पूरा पैसा और ज़मीनें खरीदने में लगा दिया । और सरकार सो रही थी। 

जब बैंकों के एनपीए और बिल्डरों के घोटाले सामने आने लगे तो रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी का प्रावधान किया गया २०१३ में !  लेकिन तब तक ग्राहकों का विश्वास उठ चुका था तो फिर बरसों मंदी रहनी ही थी। जनता ने फिर से किराए के घर में रहने को अच्छा समझना शुरू कर दिया। नतीजन सरकार, बैंक और बिल्डर के हिस्से आया रोना !

बिना किसी प्लानिंग और क्राइटेरिया के नेताओं और व्यापारियों को इंजीनियरिंग , मेडिकल , लॉ , एमबीए के कॉलेज खोलने दिए गए ! माँ बाप ने डोनेशन और भारीभरकम फीस के नाम पर लाखों खर्च कर दिए ; नौनिहालों को पढ़ा लिखा कर इंजीनियर , डॉक्टर , एमबीए  जो बनाना था ! फिर कुछेक साल बाद पचासेक हजार महीने की सरकारी नौकरी की चाहत लिए  जब डेढ़ दो करोड़ अधकचरे डिग्रीधारी निकलें  तो स्वरोजगार का झुनझुना थमा दिए ! अब इन कालेजों के मालिक छात्रों के प्रवेश और उनसे होने वाली कमाई को तरसने लगे हैं , लेकिन इन्हें अपने झूठे फुल पेज के नौकरी दिलाने और गारंटीड प्लेसमेंट दावों के विज्ञापन याद नहीं आएंगे , सस्ता मोदी  है और मंदी तो है ही कोसने के लिए !  

आगे क्या होगा ? थोड़ी बानगी दिखा दें आपको ! मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के अंतर्गत  सरकारी बैंकों के मार्फ़त दस लाख करोड़ रुपए के मुद्रा लोन बिना गारंटी के कागजी अज्ञानी बेरोजगारों को बांट दिए हैं !  अगला घोटाला मुद्रा लोन का होगा क्योंकि उसे वापस करने का इरादा लोगों का पहले दिन से ही नहीं है ।नामों गजबे रख दिए गए हैं - शिशु लोन , किशोर लोन और तरुण लोन ! पता नहीं बेरोजगारी दूर हुई या नहीं ! 

भारत जैसे १३५ करोड़ की जनसँख्या वाले लोकतांत्रिक देश में आज लोकतंत्र ही अभिशाप बन जा रहा है ! सरकार जिस किसी की भी रही या है या रहेगी, टारगेट चुनाव जीतना होता है जिसके लिए पैसे चाहिए और ये पैसा बड़े बड़े पैसेवाले ही ना देंगे ! फिर छुटभैये नेताओं वाली मानसिकता सरकार में आने के बाद भी बनी ही रहती हैं, निजी स्वार्थ और निहित स्वार्थ सर्वोपरि होते हैं। पैसेवालों से, धन्ना सेठों से चंदा लेना है तो एवज में देना भी हैं चूँकि उन्हें खुश रखना है। तो भई ! स्कोप उनका बना रहे , सुनिश्चित करना है तो नियम और नियामक तदनुसार ही बना दिए जाते हैं ! नतीजन नुकसान भी और समस्याएँ भी पैदा होनी ही हैं और तब सरकार अग्नि शमन सेवा के आदर्श रोल में अवतरित हो जाती हैं !  

अब हम भारतीय मानसिकता की बात करें ! सिद्धांततः हम ग्लोबलाइज़ेशन की बात करते हैं , अपडेटेड सोशल मीडिया चाहते हैं , लेटेस्ट स्मार्टफोन भी चाहिए ऑनलाइन भी प्रेफर करने लगे हैं , डिजिटल होना सोशल स्टेटस सिंबल भी बन गया है ; लेकिन धंधे , नौकरी की बात करेंगे तो अस्सी के दशक में ही जी रहे हैं हम ! तभी तो नोटबंदी और जीएसटी को खराब बताते हुए जब मौका मिला मंदी का ठीकरा इस कोरोना काल में भी उन्हीं पर फोड़ने से बाज नहीं आते। ऐसा ही तो तब माहौल था जब कंप्यूटर आया था लेकिन तब राजीव गांधी लाये थे ना ! जीएसटी , ऑनलाइन व्यवस्थाएं , नियम , कानून तो पिछले ५-६  साल से चर्चा में हैं लेकिन लोग उन्हें अभी भी अपनाने से कतरा रहे हैं , व्यापारी, अफसर उनकी काट ढूंढ रहे हैं बजाए उसे मानने के तो टैक्स कलेक्शन कैसे बढे !

नोटबन्दी सरकार का अच्छा कदम था , ठीक वैसे ही जैसे अनुच्छेद ३७० का हटना । लेकिन उसको अरबपतियों ने, नेताओं ने , ब्यूरोक्रेट्स ने , मीडिया ने जनता का , गरीबों का नाम ले लेकर कोसना शुरू कर दिया और आलम ये है कि चार साल बाद भी मातम मनाया गया है ! तब से लेकर और अब तक  जनता से ले कर बैंक कर्मचारियों, उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और पूरी प्रक्रिया निर्णायक दौर में पहुंची ही नहीं । और उसकी विफलता पर प्रश्न मोदीजी से पूंछे जाते हैं । यकीन मानिये यदि सभी एक महीने भी सख्ती बरत लेते तो एनपीए  , माल्या  , नीरव मोदी का किस्सा हुआ ही नहीं होता। ये लोग उसी वक्त पकड़ में आ गए होते । सरकार को आरबीआई का मोहताज होना ही नहीं पड़ता , टैक्स जो खूब बरस जाता ! 

अब बात करें पोस्ट लॉक डाउन की तो इकोनॉमिक गतिविधियों ने बेशक गति पकड़ ली हैं , पिछले महीने अक्टूबर का जीएसटी कलेक्शन यही बताता है ! कमोबेश सभी व्यापार मसलन निर्माण, ट्रेडिंग , सर्विसेज वगैरह पुनः चालू हैं ! हाँ , टूरिज्म अभी बंद है, होटल एंड रेस्टोरेंट बिज़नेस भी काफी लो है , ट्रेडिशनल शॉप्स और एमएसएमई के कुछेक ब्रैकेट्स के लिए भी सेटबैक बना हुआ है ! नौकरियां अभी ट्रांज़िशनल फेज में हैं तो जितनी गयी हैं , वे सारी की सारी रिस्टोर नहीं हुई हैं ! ट्रांज़िशनल हम इसलिए कह रहे हैं कि डिजिटलाइज़ेशन की वजह से सर्विस ओरिएंटेड ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स में नई नौकरियों का सृजन हो रहा है ! फंडामेंटल्स मजबूत हैं ; फोरेक्स रिज़र्व आल टाइम हाई ५६० बिलियन डॉलर पर हैं , शेयर मार्किट फरवरी के सूचनांक को क्रॉस कर ४२५९७ पर है , गोल्ड रिज़र्व भी ६७० टन के आल टाइम हाई पर है।  

तो साल २०२० के चौथे महीने कमडाउन में अब सिर्फ नौकरियों के लाले जरूर हैं जबकि इकोनॉमिक एक्टिविटीज पुराने मोमेंटम से भी आगे निकल चुकी हैं ! इससे भी ज्यादा राहत देने वाली खबर फैक्टरी उत्पादन का सूचकांक पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय का सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचना है। निक्कई परचेजिंग मैनेजर इंडेक्स के अनुसार अक्तूबर महीने में यह ५८.९ पर पहुंच गया है। अगर इस सूचकांक के हिसाब से देखें, तो यह ठीक है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई है, अक्तूबर में तमाम तरह के आंकड़े बाजार से हताशा के बादल छंटने के संकेत दे रहे हैं। विशेषतः ऑटोमोबाइल क्षेत्र के आंकड़े इतने बेहतर और हैरान करने वाले रहे हैं। दुपहिया वाहनों और कारों की बिक्री खासी उम्मीद बंधा रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है, उसका इन पटरियों पर रफ्तार पकड़ कर मंजिल की ओर बढ़ना। हमारी सरकारों और वित्तीय संस्थाओं को अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़नी चाहिए और सशक्त आर्थिक नीतियों के द्वारा देश को समग्र विकास की ओर अग्रसर करना चाहिए। 

जहाँ तक बेरोजगारी का मसला है तो इसकी एक बड़ी वजह बढ़ती हुई जनसँख्या भी हैं ! और फिर २०२० कोरोना क्राइसिस ने भी स्थिति और विकट कर दी ! एक और फील जो मिला , वह है जनता गांधीवादी हो गयी है इस मायने में कि जो चीज महँगी हो , उसका त्याग कर दो या उसका प्रयोग कम कर दो, मुनाफाखोर बिजनेसमैन और सरकार भी अपने आप ठीक हो जायेंगे।  दरअसल  मंदी कुछ नहीं है । यह आम जनता का बदला है व्यापारियों और सरकार से जो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को एक ही बार में मार के खाना चाहते हैं । और ये प्रवृति अनायास ही नहीं है। बिज़नेस क्लास ने जीएसटी के ट्रांजीशन की वजह से हुआ फायदा कस्टमरों को नहीं दिया, नतीजन जनता ठगी गयी। सरकार कहती रही कि डीटीएच चैनल चुनकर अपना बिल काम कर लें और डीटीएच वालों ने ऐसा गेम किया कि बिल पहले से ज्यादा हो गए। यही शोषण मल्टीप्लेक्स वाले कर रहे थे। 

तो अब जनता स्मार्टर हो गयी है। और दुर्भाग्य से कम्बख्त चाइनीज वायरस  भी आ गया। कहने का मतलब स्मार्टर जनता और कोरोना ने इकोनॉमी और सरकार की वाट लगा दी !  जो महीने में ४ बार रेस्टोरेंट जाते थे वे कोरोना के पहले से ही एक दो बार जाने लगे  और दुकानदार मक्खियां मार कर मंदी का रोना रोने लगे। लोग डीटीएच का कनेक्शन कटवा कर जियो के इंटरनेट पर चैनल ,यूट्यूब पहले से ही देखने लगे थे और रही सही कसर कोरोना काल में ऑनलाइन रहकर लोगों ने निकाल दी ! ओटीटी प्लेटफार्म तो मल्टीप्लेक्सेज के लिए सबसे बड़ा थ्रेट बन गए हैं,   लीवर और बाकी कम्पनियां मंदी जो है ही नहीं बताकर सामानों के दाम घटा रही हैं जो इन्होंने जीएसटी के टाइम भी नहीं किया था। 

 फिर जनता के पास टाइम पास करने , यातायात के साधनों के , मनोरंजन के , ऑफलाइन और ऑनलाइन से देश और विदेशों से सामान खरीदने के विकल्प बढ़ रहे हैं , ऐसे में परम्परागत तरीकों में मन्दी आनी ही है और जो मंहगा बेचेगा उसकी तो दूकान ही बंद हो जाएगी ! तो निष्कर्ष यही है इकोनॉमी का अपनी जगह फिर लेना एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है लेकिन जहाँ तक बेरोजगारी का प्रश्न है, फैक्टर्स कई हैं और वो समय अब नहीं रहा जब रोजगार और इकोनॉमी का सीधा और एकमात्र संबंध था ! एक तरफ भारत में हर साल ८ लाख नए बेरोजगार जुड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ इकोनॉमिक ग्रोथ के साथ साथ टेक इम्पैक्ट से परंपरागत रोजगार घट रहे हैं और उनकी जगह नए किस्म के रोजगार पैदा हो रहे हैं। ज्यादा जरुरी हो गया है  जनसँख्या विस्फोट पर काबू पाना और स्किल डेवलपमेंट का ! सरकारों को भी लोकलुभावन राजनीति को तिलांजलि देनी होगी ! लेकिन डगर आसान नहीं हैं ! रिस्क बड़ा है सबों के लिए चाहे जनता हो या फिर सरकार हो !    

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Prakash Jain

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