लगता तो ऐसा ही है चूंकि उन्हें हराने की कोशिश हो ही नहीं रही है ! थोड़ी बहुत उम्मीद भी तब खत्म हो गई जब एक बार फिर राहुल गांधी का ऑफिसियल टेंपल रन स्टार्ट हो गया ! अंततः राहुल जी ने स्वयं ही एक बार फिर तस्दीक कर दी कि वे जनेऊधारी शिवभक्त दत्तात्रेय कश्मीरी ब्राह्मण हैं और यही तो पिछड़े वर्ग के मोध -घांची - तेली समुदाय के चायवाले नरेंद्र मोदी जी चाहते थे ! वे, जो माइनॉरिटी इंडियन क्लास को बिलोंग करते हैं खासकर मुस्लिम, पहले ही छिटक चुके थे, अब तो सर्वहारा वर्ग का भी रहा सहा मोह भंग हो गया है देश की कथित सबसे पुरानी पॉलिटिकल पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस से !
राहुल को विरासत में मिली कांग्रेस पार्टी का आज भी देश में दूसरा सबसे बड़ा जनाधार है लेकिन आम धारणा यही बन गई है कि वे खुद ही तैयार नहीं है ! उनकी मति ही मारी गई है कि वे बार बार स्वयं को उच्च वर्ग का हिंदू घोषित कर रहे हैं जबकि हकीकत कुछ और ही है ! यही वजह है कि उनका ढोंग पकड़ में आ जाता है और फिर बीजेपी के धुरंधर तैयार जो रहते हैं उनके अथक प्रयासों को बाल सुलभ क्रीड़ाएं बताने के लिए ! फिर जाने अनजाने ही वे कोई न कोई ब्लंडर भी कर देते हैं मसलन हाल ही उन्होंने ट्वीट कर लोगों को पहले जन्माष्टमी और फिर गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं तो दी लेकिन अटैच्ड क्रिएटिव से श्री कृष्ण और गणेश जी नदारद थे ! अब लोगों का काम है कहना तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि वे अपने ट्वीट में जानबूझकर देवी-देवताओं या हिन्दू धार्मिक प्रतीकों को जगह नहीं देते चूँकि वे हिंदू है ही नहीं !
लेकिन क्या कांग्रेस सिर्फ राहुल है ? वो ज़माना गया जब इंदिरा कांग्रेस थी हालाँकि उस जमाने में भी "इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा" के नारे ने कांग्रेस को चारों खाने चित कर दिया था। सवाल है क्या कांग्रेस पार्टी तैयार है मोदी को चैलेंज करने के लिए ? उत्तर नहीं है क्योंकि आंतरिक कलह , असंतोष , राज्यों पर ढीली पड़ती पकड़ ये सब चरम पर है। ना चेहरा ना नारा ना ही कोई डिक्लेरेशन तो दिग्भ्रमित विचारधारा के साथ पार्टी क्या करे ? कहना मुश्किल है पार्टी में संतुष्ट कौन है ? ऑन ए लाइटर नोट यदि सभी असंतुष्ट ( जी २३ और इसके हर सदस्य से जुड़े लोग, अनेकों सस्पेंडेड कांग्रेसमैन, राजयवर वर्चस्व के लिए विभिन्न गुट मसलन सचिन पायलट गुट, बघेल गुट, गहलोत गुट , कैप्टेन गुट , सिद्धू गुट आदि ) पार्टी छोड़ दें या परिपाटी( तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, वाईएसआर कांग्रेस आदि) फॉलो करते हुए अलग पार्टी बना लें तो बचेगा कौन ?
स्पष्ट है कांग्रेस तय ही नहीं कर पा रही है वह कट्टर सेक्युलर बने या सॉफ्ट हिंदुत्ववादी की डगर पर चले ; वामपंथ की राह चुने या फिर मॉडरेट सोशलिस्ट दर्शाये स्वयं को ! उनके इसी पेशोपेश या ऊहापोह की स्थिति को ही तमाम क्षेत्रीय पार्टियां एक्सप्लॉइट कर रही है ! नतीजन राज्य दर राज्य कांग्रेस किसी न किसी प्रांतीय क्षत्रप की पिछलग्गू बन कर रह जा रही है - वेस्ट बंगाल में सीनियर पार्टनर सीपीएम है , महाराष्ट्र के महा विकास अगाडी गठबंधन में महा पिछाड़ी है, बिहार में कल के छोरे तेजस्वी के रहमोकर्म पर थे , झारखंड में हेमन सोरेन सीनियर पार्टनर है गठबंधन में !
यहाँ तक तो ठीक था लेकिन अब राष्ट्रीय स्तर पर भी महान पार्टी का मखौल उड़ाया जा रहा है इन तमाम प्रांतीय पार्टियों द्वारा ! एनसीपी प्रमोटर शरद पवार, जो कभी आईएनसी के कद्दावर नेता थे और जिन्होंने परिवार के विदेशी मूल की वजह से पार्टी छोड़ी और एनसीपी (नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी ) की स्थापना की , अब शायद अपनी पुरानी कंपनी को टेक ओवर करना चाहते हैं तभी तो वे कहते हैं कि कांग्रेस एक पुराने जमींदार जैसी है, जिसके हाथ से जमीन तो निकल गई है मगर हवेली बची हुई है और उसे संभाले रखने की ताकत उसमें नहीं रह गई है। उनके दिल की बात यही है कि कांग्रेस पार्टी उनका नेतृत्व स्वीकार कर उन्हें भाजपा विरोधी फ्रंट का नेता मानें क्योंकि कांग्रेस अब वह पार्टी नहीं रही है, जिसका कभी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक दबदबा था ! पवार साहब ने कहा कि अगर कांग्रेस अपनी मानसिकता छोड़ इस हकीकत को स्वीकार कर लेती है, तो विपक्षी दलों के साथ उनकी नजदीकी बढ़ जाएगी। सही मायनों में कहा जाए, तो शरद पवार ने कांग्रेस की उस हकीकत से ही पर्दा उठाया है, जिसे वो मानने से लगातार इनकार करती रही है।
दरअसल पवार कोई कोरकसर छोड़ ही नहीं रहे हैं तभी तो साझा विपक्ष के नेतृत्व के लिए कांग्रेस राहुल गाँधी का नाम नहीं ले पा रही है। एनसीपी सुप्रीमो पवार आने वाले यूपी विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनाव में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव का साथ दे रहे हैं और पिछले दिनों हुए बंगाल के चुनाब में उनकी प्राथमिकता तृणमूल थी। लेकिन दीदी की राष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षा उन्हें रास नहीं आई और इसका सन्देश उन्होंने पिछले दिनों ममता दीदी के दिल्ली प्रवास के दौरान उनसे मुलाक़ात ना कर दे भी दिया।
महाराष्ट्र की महा अगाडी गठबंधन की सरकार की बात करें तो अब स्पष्ट हो चला है आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ गठबंधन में शिवसेना और एनसीपी ही रहेंगे। उधर ममता दीदी ने पश्चिम बंगाल कांग्रेस में सेंध लगा दी है और पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत प्रणव मुखर्जी के बेटे और उनके रिश्तेदारों को टीएमसी में शामिल कर लिया है। और तो और पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कांग्रेस की बखिया उधेड़ रही हैं वो ! महिला कांग्रेस की अध्यक्षा सुष्मिता देव को भी टीएमसी में शामिल कर लिया है। त्रिपुरा में भी कांग्रेस नेताओं पर उनकी नजर है। यूपी में अखिलेश यादव इस कदर हावी हैं कि कांग्रेस सांसत में है और तय ही नहीं कर पा रही है विरोध किसका करे - बीजेपी का या सपा का ? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर जगह कांग्रेस सिमटती जा रही है और कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि २०२४ आते आते बिहार में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी लोकसभा चुनाव से पहले कोई बड़ा दांव ऐसा खेल दें और कांग्रेस को बिल्कुल ही दरकिनार कर दें आखिर राहुल के दागी सांसदों से संबंधित मनमोहन सिंह सरकार के प्रस्ताव को फाड़ने वाले एपिसोड से सबसे ज्यादा वही आहत हुए होंगे ना ! बदला लेना तो बनता ही है !
साउथ की बात करें तो पूरा जोर लगा दिया लेकिन केरल फतह नहीं कर पाए ! तमिलनाडु की स्टालिन सरकार में बौनी ही नजर आती है कांग्रेस ! पंजाब का अखाड़ा ऐसा है कि दोनों पहलवान आपस में ही लड़ रहे हैं और वहां इस बार केजरीवाल सरकार बनना तय है।
परंतु असल प्रश्न मोदी को सफल चुनौती देने की है तो चीजें स्पष्ट हो चली हैं ! ममता दीदी कितना भी जोर लगा लें, उनकी स्वीकार्यता पैन इंडिया पर न तो जनता में हैं और न ही बीजेपी विरोधी खेमे के किसी भी क्षत्रप को वो स्वीकार हैं। कमोबेश यही स्थिति पवार साहब की है। राहुल मोदी के ट्रैप में हैं ही ! रह रह कर कोई नीतीश कुमार के लिए फुसफुसा देता है लेकिन सुशासन बाबू अब कुशासन बाबू हैं ! स्टालिन की बात करें तो तमिलनाडु के बाहर उनकी हैसियत ही कहाँ है ? मायावती की अलग ही राजनीति है ; कोई विशेषज्ञ दावा नहीं करता कि वे भाजपा विरोधी हैं नेशनल फ्रंट पर ! ले देकर एक नाम बच जाता है अरविंद केजरीवाल ! लेकिन उनकी पार्टी अभी विकास के शुरुआती चरण में ही है और उनकी जोरदार पकड़ को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं है। परंतु मोदी विरोधी फ्रंट में वे सबसे कम उम्र के हैं तो उनके पास अभी समय है। देखा जाए तो वे देश के तमाम प्रमुख नेताओं में एक को छोड़कर बाकी सबसे छोटे हैं और वो एक हैं यूपी के मुख्यमंत्री योगी जो मोदी जी के भाग्य से भाजपा में हैं।
सत्तर के दशक में पोस्ट इमरजेंसी इंदिरा कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बना जनता पार्टी ! कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी लेकिन तब भी क्षत्रपों के ईगो आड़े आये और मात्र ढाई साल बाद ही इंदिरा पुनःकाबिज हो गयीं ! आज तक़रीबन पांच दशकों बाद मतदाता इतने परिपक्व हो गएँ हैं कि वैसा कुछ होने ही नहीं देंगे और जब तक विपक्षी खेमा मोदी के खिलाफ मोदी जैसा ही दमदार नेता डिस्कवर नहीं कर लेता, नेशनल फ्रंट पर मोदी अजेय ही हैं !
मोदी के पक्ष में वोटरों के द्ष्टिकोण से एक और बात जाती है और वो है उनकी पर्सनल ईमानदारी ! दो दशक से ज्यादा हो गए उन्हें सत्तासीन हुए (पहले गुजरात के चीफ मिनिस्टर थे और पिछले सात सालों से देश के प्रधानमंत्री है ) न तो उनके परिवार की वेल्थ बढ़ी और न ही उनकी निज की ! दूर दूर तक किसी भी रिश्तेदार को कोई फायदा मिला हो, कोई ऐसा एक्सपोज़र नहीं है चूंकि हुआ ही नहीं है। हाँ , विपक्ष खासकर कांग्रेस "मित्रों" की बात करता है तो जनता उसे खारिज ही करती है क्योंकि वे कथित "मित्र" मोदीकाल के पहले से ही धन्ना सेठ हैं और तब वे कांग्रेस के "मित्र" होते थे !
परंतु डेमोक्रेसी है तो अजेय कौन रहा है ? ना इंदिरा अजेय रह पाई थीं , ना ही राजीव गाँधी और ना ही वाजपेयी ! क्या भाजपाइयों ने सपने में भी सोचा था २००४ की हार का ? तब अजेय नेता ने खुद अपनी हार को न्योता दिया था। इंदिरा गांधी को इमरजेंसी की आक्रामकता ने, राजीव को अपनी कई भूलों ने, वाजपेयी और उनकी पार्टी को गठबंधन के साथियों के प्रति उपेक्षा ने डुबोया था। तो क्या विपक्ष के पास कोई चारा नहीं है सिवाय इंतजार के कि मोदी खुद को ही डुबोएं ? फिलहाल तो उम्मीद कम ही है कि नरेंद्र मोदी से ऐसी कोई मेजर गलतियां होंगी ! उनकी पार्टी भी जनाधार की निरंतरता सुनिश्चित करने में तन मन धन से लगी हुई हैं, उनका हर बंदा, भले ही वह एक आम कार्यकर्त्ता ही क्यों ना हो , इस तरह लगा हुआ है मानों जीवन मरण का सवाल हो ! पार्टी की स्ट्रेटेजी स्पष्ट है कि राज्यों में विपक्ष से मुकाबला करते रहो फिर भले ही एकाध राज्य हाथ से निकल जाता हो !
यदि विपक्ष तीसरे मोर्चे के रूप में नॉन कांग्रेस अलायन्स का निर्णय ले तो बीजेपी यही चाहती है। बीजेपी के खिलाफ संपूर्ण विपक्ष का एका ही एकमात्र उपाय है जिसकी थ्योरी तो रोज प्रतिपादित होती है लेकिन प्रैक्टिकली दूर की कौड़ी नजर आती है। कांग्रेस इस मुगालते में है कि चूंकि इन बदतर हालातों में भी उसके पास बीस फीसदी जनाधार है तो कांग्रेस के तहत ही गठबंधन बनना चाहिए। जबकि सच्चाई अब ऐसी नहीं है। फिर नेतृत्व कौन करेगा ? दो साल बीत चुके हैं, अपना ही नेता चुन नहीं पा रहे हैं !
कुल मिलाकर फिलहाल तो मोदी अजेय ही हैं। हालांकि आसन्न यूपी विधान सभा चुनाव लिटमस टेस्ट होगा ! यूपी चुनाव निःसंदेह बीजेपी के लिए बेहद निर्णायक होंगे। क्या विपक्ष वहां एकजुट होकर चुनावी जंग में मोदी से लोहा ले पायेगा ?
Write a comment ...