वाकई सार्थक दासगुप्ता ने दलितों पर केंद्रित एक सार्थक फिल्म बनाकर अपना नाम सार्थक किया है ! अभी तक साउथ की फ़िल्में दलित चेतना का अलख जगा रही थीं ; पिछले दिनों ही आयी धनुष की कर्णन इसी भावना से ओतप्रोत गजब की फिल्म थी और शायद पहली फिल्म थी जिसे हिंदीपट्टी के लोगों ने ऑंखें गड़ाकर हिंदी सब टाइटल पढ़ते हुए खूब मन लगाकर देखी थी ! यकीन मानिये "२०० हल्ला हो" एक कदम आगे है ये बताने में कि पैदाइश से समान इंसान होते हुए भी उसके डीएनए में असमानता के बीज क्यों कर फलने फूलने लगते हैं !
१३ अगस्त २००४ में महाराष्ट्र के नागपुर के कस्तूरबा नगर में एक अभूतपूर्व घटना घटी थी जिसमें वहां के एक इलाके की करीब २०० महिलाओं ने स्थानीय गुंडे-बलात्कारी-हत्यारे को भरी अदालत में मौत के घाट उतार दिया था! शायद दुनिया की दुर्लभ घटनाओं में से एक थी ये घटना ! इसी असाधारण घटना को बखूबी पर्दे पर उतारते हुए दलित विमर्श और उसके परिदृश्य को विस्तार देने का सार्थक प्रयास है "२०० हल्ला हो" !
यूँ तो फिल्म का हर छोटा बड़ा किरदार, यहां तक कि सिर्फ एक द्श्य में मूक चायवाला भी, जीवंत है और उन किरदारों में लिए गए सभी कलाकार बेहतरीन है, लेकिन दलित युवती आशा सुर्वे के किरदार में रिंकू राजगुरु और रिटायर्ड जज विट्ठल डांगले के, जो स्वयं भी दलित हैं , किरदार में दशकों बाद अवतरित हुए अमोल पालेकर, दोनों ने ही खूब सधा, संतुलित और कमाल का अभिनय किया है। अमोल फिल्म रजनीगंधा से तब हिंदी सिनेमा के फलक पर आये थे जब एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन की तूती बोलने लगी थी। उनका संवाद अदायगी का सहज और सादगी भरा जादुई अंदाज आज भी जस का तस है। मराठी फिल्म "सैराट" फेम रिंकू राजगुरु के तो क्या कहने ? हिंदी पट्टी ने उनकी वह फिल्म न देखी होगी लेकिन कईयों ने इस कोरोना काल में हॉटस्टार पर स्ट्रीम हुई "हंड्रेड" देखी होगी ! उनकी अभिनय क्षमता लाजवाब है। दलित युवा आशा सुर्वे के किरदार में वे इस कदर समाई हैं कि एक मिनट के लिए भी उनसे नजरें नहीं हटती !
ऐसा नहीं है कि दलित विमर्श के कथानक पहले नहीं आये हैं ! हालिया वर्षों में जिक्र 'मसान', 'धड़क' और 'आर्टिकल १५' जैसी फ़िल्में आई हैं लेकिन वे नायक - नायिका तक ही सीमित रह गई थीं ! जबकि "२०० हल्ला हो" शुरू से अंत तक दलित समाज के दर्द और आक्रोश को सामने लाने की कोशिश करती है, जो बरसों-बरस खुद पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाता और इस मामले में स्वाभाविकता के मापदंड पर ये बेहतरीन "कर्णन" से भी इक्कीस बैठती है। फिल्म एक समाज विशेष की विवशता को कंट्रीब्यूट करने वाले राजनीतिज्ञ, प्रशासन(पुलिस),न्यायालय और सरकार (चुनाव) के नेक्सस को बखूबी और बेख़ौफ़ उजागर करती है। तमाम कमिटियां बनती हैं फैक्ट फाइंडिंग के नाम पर लेकिन मंशा क्या होती है और उनका क्या हश्र होता है, अब तो सभी समझते हैं !
संविधान की दुहाई देकर आदर्श बखारा जाता है कि न्याय जाति और धर्म से ऊपर है ! यही तो विरोधाभास है जब कहा जाता है न्याय के सामने जाति-धर्म का हवाला देना बेकार है ! लेकिन ऐसा करना जरूरी भी होता है तभी तो रिटायर्ड जज के सम्मुख दलित नायिका बोल ही पड़ती है, "जाति के बारे में क्यों न बोलूं सर, जब हर पल हमें हमारी औकात याद दिलाई जाती है !" निःसंदेह यह फिल्म अति-आधुनिक और प्रबुद्ध विचारों वाले समाज में दलितों-पिछड़ों पर होने वाले जघन्य अपराधों पर पसरी दिखती चुप्पी से कई कड़े सवाल करती है।
फिल्म के संवाद अंतर्मन को छू छू जाते हैं, सोचने को मजबूर करते हैं खासकर वे जो रिटायर्ड जज उच्च न्यायालय में आर्ग्युमेंट के दौरान कहते हैं ! एक एक शब्द मार्मिक है, सटीक है और पिन ड्रॉप साइलेंस सा माहौल क्रिएट करता है। अमोल पालेकर की खासियत है कि वे अपने अपोजिट आये कलाकार से भी उम्दा अभिनय करा ले जाते हैं ! जब आशा सुर्वे कहती है कि संविधान में लिखे शब्दों को सिर्फ याद रखना जरूरी नहीं, उनका इस्तेमाल करना ज्यादा जरूरी है, रिटायर्ड जज साहब, जो स्वयं की सामाजिक हैसियत उठने के बाद हकीकत से वाकिफ नहीं होना चाहते थे क्योंकि अपनी जड़ें ही शायद वे भूल चुके थे , निरुत्तर हो जाते हैं। आशा सुर्वे है कि पढ़ लिख कर आगे बढ़ जाने के बजाय वह अपनी दुनिया के लिए ही सोचती है चूंकि सुन्दर बनाना चाहती है, अपने लोगों को जागृत करना चाहती है। आखिर युवा दलित पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती रिंकू राजगुरु बुजुर्ग और तरक्की कर चुके अमोल पालेकर की ऑंखें खोल ही देती है तभी तो जब वे कहते हैं कि हमें आदत हो गई है सुबह चाय पीते हुए ऐसी खबरें पढ़ने की और पढ़ कर कुछ महसूस न करने की, हम बगले झांक रहे होते हैं फिल्म देखते देखते !
जैसा पहले भी जिक्र किया, फिल्म की पूरी कास्ट लाजवाब है। एक तेज-तर्रार और निडर पत्रकार सोनी के किरदार में सलोनी बत्रा, एक भ्रष्ट पुलिस वाले के किरदार में उपेंद्र लिमये और एक वकील के किरदार में बरुन सोबती सभी अच्छे हैं ! ख़ास जिक बरुन का बनता है उन्होंने जानबूझकर अपने किरदार को अंडरप्ले किया है ताकि उनके किरदार के चीखने, चिल्लाने से वो आवाज़ें न दब जाए, जिनका सामने आना सबसे ज़रूरी है। स्पेशल मेंशन फिल्म के राक्षस बल्ली चौधरी का भी बनता है। साहिल खट्टर बने हैं बल्ली और अपने किरदार में जिस प्रकार उन्होंने हाव भाव दर्शाये हैं देखकर घिन आती है।
पटकथा उम्दा है और संवाद भी आला हैं। कई संवाद ऐसे हैं, जो फिल्म खत्म होने के बाद भी जेहन में गूंजते रहते हैं। मसलन “वहां सब अच्छा है लेकिन सच नहीं है; मुझे यहां रहकर अपने सच को अच्छा करना है" और “मिडल क्लास के बाद आता है लोवर क्लास, फिर आते हैं गरीबी रेखा से नीचे वाले लोग. फिर आते हैं दलित, उसके बाद आती हैं दलित महिलायें !”
कुल मिलाकर, फिल्म '२०० हल्ला हो' बिना किसी हो हल्ला के रिलीज हुई एक सच्ची घटना पर आधारित एक गंभीर और सार्थक फिल्म है और इसलिए इसे देखा जाना चाहिए ! अंत में एक बात कहे बिना रहा नहीं जा रहा चूंकि सालों से दिमाग में सवाल घुमड़ रहा है ! उन मुजरिमों का दुर्भाग्य ही कहें ना जिन्हें निचली अदालतें सजा सुना देती हैं लेकिन वे अपील के लिए उच्च न्यायालय या शीर्ष न्यायालय का रुख नहीं कर पाते चूंकि पैसे नहीं हैं ! जिस तरह उच्चतर न्यायालयों में फैसले पलट जाते हैं तो कैसे कहें कि सब मामलों में न्याय हुआ ही ; आखिर उन तमाम दोषियों में से भी अनेकों निर्दोष जो करार दे दिए जाते !
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