जबलपुर हाईकोर्ट की इंदौर बेंच के न्यायमूर्ति ने शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाने के मामले में आरोपी को जमानत नहीं दी ; निःसंदेह न्यायोचित फैसला था ! परंतु इसी तारतम्य में उनके बोलबचन ने रूढ़िवादी और संकीर्ण सोच भी उजागर कर दी ! उनका फैसला जेंडर न्यूट्रल के मापदंड पर खरा था चूँकि आरोपी ने विक्टिम को शादी के झांसे में फंसाकर उसके साथ संबंध बनाए जबकि उसे अच्छे से पता था कि दोनों के धर्म अलग हैं। जस्टिस अभयंकर ने परफेक्ट बात भी की जब कहा, "“किसी भी लड़के को शारीरिक संबंध बनाने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि उसके परिणाम क्या हो सकते हैं और अगर कुछ हुआ तो उसे कितना झेलना पड़ सकता है। ज्यादातर मामलों में अंत में लड़की को ही झेलना पड़ जाता है और जब ऐसा रिश्ता उजागर होता है तो समाज में बदनामी भी लड़की की ही होती हैं।"
लेकिन अगले ही पल जज साहब कुछ ऐसा बोल गए कि शर्मसार कर गए ! वे कह बैठे कि अपवादों को छोड़ दें तो भारत में विवाह के पहले बिना शादी के आश्वासन के लड़कियां फिजिकल नहीं होती ! यही बात अखर गई हैं और अखरना सही भी है। दरअसल गाहे बगाहे इंटेलेक्चुअल क्लास से कोई न कोई इस प्रकार की दकियानूसी सोच व्यक्त कर ही देता है जिससे जेंडर न्यूट्रल के कांसेप्ट को धक्का पहुँचता है। आखिर जब जेंडर इक्वलिटी या न्यूट्रल की पैरोकारी होती है तो दूसरा पक्ष भी तो है। तभी तो महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित आईपीसी के प्रावधानों पर पुनर्विचार और संशोधन के निर्देश की मांग करते हुए दो लॉ स्टूडेंट्स दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए ताकि उन्हें जेंडर न्यूट्रल बनाया जा सके। उनका कहना है 'Men's Lives Matter' !
उनके तर्क भी सशक्त हैं। उनका कहना है कि आईपीसी की धारा ३५४ ए - ३५४ डी (यौन उत्पीड़न ), धारा ३७६ (रेप) , धारा ५०६ (आपराधिक धमकी ), धारा ५०९ (महिलाओं की मर्यादा का अपमान ), धारा ४९८ ए (महिलाओं के प्रति क्रूरता ) आदि प्रावधान जेंडर के आधार पर भेदभाव करते हैं और पुरुषों की समानता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करते हैं और इसलिए ये संविधान के अनुच्छेद १४ और १५ (१) का उल्लंघन है। अर्जी में लखनऊ के हालिया मामले का हवाला भी दिया गया है जहां एक लड़की को कैब ड्राइवर को थप्पड़ मारते देखा गया था ! याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि महिलाओं द्वारा यौन अपराध कानूनों का दुरुपयोग बढ़ रहा है। पुरुषों की गरिमा का अपमान किया जा रहा है। ये कानून १५० साल पहले बनाए गए थे जब वास्तव में महिलाओं के उत्थान के लिए ऐसे कानूनों की जरूरत थी। लेकिन अब उनकी जरूरत नहीं है क्योंकि अब महिलाएं विकसित और सशक्त हैं।
लौट आएं जज साहेब की मानसिकता पर ! होना तो यही चाहिए यदि एक लड़की बिना किसी कमिटमेंट के किसी पुरुष के साथ संबंध बनाती है तो वह भी उतना ही स्वीकार्य होना चाहिए। माननीय न्यायमूर्ति की और अन्य कईयों की भी मानसिकता एक महिला को बेचारी की तरह पेश करती है कि वह अपने शरीर से जुड़ा एक ज़रूरी और अत्यंत निजी फैसला खुद नहीं कर सकती और वह सिर्फ और सिर्फ शारीरिक सुख के लिए किसी के साथ संबंध नहीं बना सकती !
फिर क्या जज साहब को पता नहीं है सन २००५ में ही भारत में कोहेबिटेशन जिसे हम लिव इन रिलेशनशिप के नाम से जानते है को क़ानूनी मान्यता मिल गयी थी ? उसी समय पहली बार बॉलीवुड में इस विषय पर एक फिल्म आयी थी "सलाम नमस्ते"; हालाँकि विवाद भी काफी हुआ था क्योकि सैफ अली खान और प्रीति जिंटा की पिछली फिल्म 'क्या कहना' में पूर्व-वैवाहिक शारीरिक संबंध और किशोर-गर्भावस्था से निपटा गया था, तो २००५ की फिल्म 'सलाम नमस्ते' ने भारत में एक और विवादास्पद विषय पर फिर प्रकाश डाला जो था लिव-इन रिलेशनशिप।खैर ! बात वर्तमान की करें ! क्या जज साहब वाकई नादान हैं ? आज तो लोग , मेल हो या फीमेल, प्राउड से बताते हैं "इन रिलेशनशिप' हैं और रिलेशनशिप में फिजिकल होना भी सामान्य हो चला है ! अंग्रेजी में कहावत है "इग्नोरेंस इज ब्लिस" मतलब सब जगह सब कुछ होता है बस हम अनदेखा और अनसुना कर नजरअंदाज करते है ! अगर शारीरिक सम्बन्ध नहीं है तो कैसे पता चलेगा कि एक दूसरे की हर बात पसंद भी है की नहीं ?
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