१५ अगस्त इसी रविवार को पड़ रहा है जिसे जोश के साथ सेलेब्रेट करने के लिए बेहद माकूल फिल्म है "शेरशाह" और इसके लिए फिल्म की पूरी टीम बधाई की पात्र है। ऐसी फिल्म आए और हम कमियां निकालें ; जमता नहीं ! एक बायोपिक का परफेक्ट मास्टरपीस फ़िल्मीकरण कब संभव हो पाता है ? उसे सिर्फ सार्थक और ईमानदार प्रयास की कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए जिस पर "शेरशाह" खरी उतरती है।
कैप्टेन बत्रा सरीखे महान योद्धा की शहादत से, उनके जीवन से जुड़ा कमोबेश हर पहलू पिछले दो दशक में पब्लिक डोमेन में हैं और हम सभी वाकिफ भी हैं। सवाल कहें या क्राइटेरिया तो यही है कि "शेरशाह" में नया क्या है ?
बात करें स्क्रीनप्ले की तो वही संदीप श्रीवास्तव है जिन्होंने Sachin -A Billion Dreams के हिंदी संवाद लिखे थे, न्यूयॉर्क सरीखी फिल्म के लिए संवाद और स्क्रीनप्ले भी उन्होंने ही लिखी थी ! फिर वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी है तभी तो २५ साल की उम्र में वीरता की सर्वोच्च मिसाल कायम करने वाले नौजवान फौजी बत्रा की असली दास्तान स्क्रीन पर कमाल की बन पड़ी है !
शेरशाह मिशन में विक्रम का कोडनेम था जिसे फिल्म के टाइटल के लिए अडॉप्ट किया गया है जो उनके फ़ौज में लेफ्टिनेंट के तौर पर भर्ती होने से लेकर कारगिल वॉर में शहीद होने तक का सफर, उनके निजी जीवन के पहलुओं मसलन उनका अपने परिवार से जुड़ाव , उनका डिंपल चीमा से दीवानगी की हद तक का इश्क, साथी ऑफिसरों और जवानों के साथ दोस्ताना व्यवहार और उससे बढ़कर उनका वादी में आम लोगों के साथ घुलना मिलना आदि , कवर करते हुए बखूबी चलती है। एक अच्छी बायोपिक फिल्म की यही खासियत होती है कि सभी सुनी और जानी समझी बातों, घटनाओं को भी देखना अखरता नहीं बल्कि मंत्रमुग्धता की हद तक रोमांचित करता है जिसमें निःसंदेह "शेरशाह" कामयाब रही है।
फिल्म कहीं भी ओवर नहीं होती, संयत रहती है और यही बात लुभाती भी है। इस जॉनर की दीगर फिल्मों में अत्यधिक और अस्वभाविक अग्रेशन उभर आता है चूँकि उभारा जाता है और वही बार बार दोहराया जाता है जिससे व्यूअर्स ऊबने लगते हैं। यही अनावश्यक जोश बनावटी रूप धारण कर लेता है नतीजन फिल्म या कंटेंट एवरेज से ऊपर नहीं उठ पाता। शेरशाह में यही फैक्टर नहीं है और इसीलिए खूबसूरत है !
दो चार जगह ऐसे बनावटी जोश वाले संवाद हैं भी तो संबंधित एक्टर्स का उनको डिलीवर करने का टोन बनावटीपन को सोख सा लेता है, आत्मसात कर लेता है। और ऐसा स्वतः स्फुरित हुआ है क्योंकि कास्ट को स्टारडम से परे रखा गया है। तो कास्ट एंड क्रू का कमजोर पक्ष ही फिल्म के लिए वरदान साबित हुआ है।
फिल्म में ना तो घटनाएं या संदर्भ और ना ही संवाद अतिरंजना लिए हुए है , सभी सरल , सहज और सुगम हैं और तदनुसार ही कैप्टन बत्रा के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा, डिंपल चीमा के किरदार में कियारा अडानी और छोटे बड़े सभी किरदारों में अन्य एक्टर्स भी सरलता और सहजता लिए हुए हैं ; रत्ती भर भी नाटकीयता किसी भी एंगल से नहीं है !
हर संवाद समझदारी भरे हैं इसलिए भले लगते हैं। फिल्म की रोचकता बनी रहे सो प्रसंगवश डायलॉग को उद्धत करने से परहेज रखते हुए सिर्फ एक ही भर का जिक्र कर देते हैं चूंकि अंग्रेजी में है ; आखिर फौजी की जिंदगी क्या है - Live by chance, love by choice and kill by profession ! और यही तो जिंदगी जी कैप्टेन विक्रम बत्रा ने !
कुछ अन्य बातों का जिक्र करते चलें। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है, युद्ध के दृश्य आला हैं ; विष्णुवर्धन का निर्देशन बावजूद हिंदी सिनेमा में डेब्यू के परफेक्ट हैं ; हालांकि तमिल सिनेमा में वे नामचीन हैं। कई मार्मिक मोमेंट्स क्रिएट किये गए हैं लेकिन एक भी स्वाभाविकता नहीं छोड़ता ! हालांकि सिनेमाई स्वतंत्रता ली गई है लेकिन मात्र दस फीसदी तभी तो बत्रा परिवार को भी खूब भा रही है ! फिल्म ख़त्म होने पर सभी किरदारों के असली फ़ोटोज़ दिखाए जाते हैं सिवाय डिंपल के चूंकि उनकी प्राइवेसी का ख़याल रखना था !
कुल मिलाकर फिल्म महान तो नहीं है लेकिन पावरफुल है; अवश्य देखी जानी चाहिए। फिर ऐसी फिल्म के लिए दिल बोल उठता है - दिल मांगे मोर ! तो दिल थामे रखें - देशप्रेम से ओतप्रोत और भी आ रही हैं मसलन अजय देवगन की "भुज" और अक्षय खन्ना की "बेलबॉटम" ! और अंत में फिल्म के क्लाइमेक्स में बजने वाले गाने की दो लाइनें गुनगुना ही देते है :-
“जो तू न मिला मानेंगे वो दहलीज़ नहीं होती
रब नाम की यारा यहाँ कोई चीज़ नहीं होती !”
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